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शनिवार, 5 अक्टूबर 2024

अपने विंध्य के गांव

बघेली कविता 

अपने विंध्य के गांव


भाई चारा साहुत बिरबा, अपनापन के भाव।
केतने सुंदर केतने निकहे अपने विंध्य के गांव।

छाधी खपड़ा माटी के घर,सुंदर महल अटारी।
घास फूस के बनी मडइया,माटी केर बखारी।

घर मा मिलिहै सूपा छउआ, टोपरी,दोहनी गघरी ।
चली बहुरिया कलसा लइके,मूड़े मा धर गोन्हरी।

कक्कू मिलिहै अपना काहीं लै हाथे पइनारी।
लंबी मूछ मुड़ेठी बाधे,इनखर गजब चिन्हारी।

छोट बड़े के रहै कायदा आपस के ब्युहार।
हितुआरस के भाव जगामै,इहां केर तेउहार।

जून जमाना पलटी मारिस,बदलै लागे गांव।
कला संस्कृति गीत बिसरिगे बिसरै लागे भाव।

बिसरें खेलकूद सब दादू, खेलैं दिनभर पबजी।
चाउमीन पिज्जा के आगे, सोहाय न रोटी सबजी।

कहै प्रियांशु कविता माही कहा पुरनिया रीत।
बन्ना बन्नी कजरी हिदुली आल्हा बाले गीत।

- प्रियांशु 'प्रिय' 
सतना 

नवरात्रि पर बघेली कविता

 नवरात्रि पर बघेली कविता


सुनिल्या मोर गोहार 


दुर्गा मैया घरै बिराजा,सुनिल्या मोर गोहार।
हाथ जोड़िके करी चरउरी,बिनती बारंबार।

हम मूरूख जड़बोग हो माता,अकिल बाट नहिं थोरौ।
लउलितिया लै हमहूं मइया,दूनौं हाथ का जोरौं।

करी बघेली के हम सेबा,बर दीन्हें महतारी।
तोहरे बिना है कउन सहारा,सगला जीबन वारी।

टूट फूट अच्छर के माला,गुहिके हम्हूं चढ़ाई।
मैहर बाली देवी दाई,हम तोहका गोहराई।

तोहरे बिना आदेश के माई,पत्तौ भर न डोलै।
तोहरै किरपा होय जो मइया,गूंगौ निधड़क बोलै।

मांगी भीख हम्हूं विद्या के,हमरो कइत निहारा।
अइसय रोज बनाई कबिता,हमहूं का अब तारा।

जय जयकार लगाई सब जन कहैं प्रियांशु भाई।
ठोलकी अउर नगरिया लइके,चली भगत मिल गाई।


- कवि प्रियांशु 'प्रिय
   सतना ( म प्र )

शनिवार, 28 सितंबर 2024

बघेली हास्‍य कविता - बुलेट कार प्‍लैटीना - कवि प्रियांशु 'प्रिय'

बघेली हास्‍य कविता

बुलेट कार प्‍लैटीना


घर मा भूंजी भांग न एक्‍कौ, ऊपर छाओ टीना 
लड़‍िका अउंठा छाप हबै, पै ताने सबसे सीना।

गुन के आगर नाव उजागर, गुटका पउआ सोटै,
बीच सड़क मता रहै अउ नाली नरदा लोटै।

सीधी बागय रीमा बागय, बागय सतना डिसटि‍क,
मेहरा बनिके रील बनाबय, थोपे खूब लिपिस्टिक।

मुंह बनाय के बो‍करन जइसा, फोटो खूब खिचाबय,
ओहिन काहीं स्‍टेटस मा, सगला दिन चपकाबय।

डार अंगउछी नटई माहीं नेता युवा कहाबय।
गुटका अउर तमाखू खाके, निबले का मुरि‍हाबय।

फेरौ दद्दा कहैं कि दादू, ल‍ड़‍िका मोर नगीना,
काजे मा इनहूं का चाही बुलेट कार प्‍लैटीना। 

- कवि प्रियांशु 'प्रिय' 
मोबा. 9981153574
email - priyanshukushwaha74@gmail.com

बघेली कविता - कइसा होय केबादा - कवि प्र‍ियांशु प्रिय

बघेली कविता -  

कइसा होय केबादा


सुना बत‍ाई सब गांमन मा कइसा होय केबादा,

शासन केहीं लाभ मिलय जो लेत हें बेउहर जादा।

सचिव सा‍हब आवास के खातिर बोलथें हर दार,

ओहिन काहीं लाभ मिली जे देई बीस हजार।

आगनबाड़ी मा आबत ही लड़‍िकन खातिर दरिया,

पै खाय खाय पगुराय रही हैं गइया भंइसी छेरिया।

जघा जमीन के झगड़ा महीं चलथै लाठी आरी,

बिन पैसा के डोलैं न अब घूंस खांय पटवारी।

सरकारी स्‍कूल मा देखन खूब मिलत हैं ज्ञान,

कुछ मास्‍टर अउंघाय रहे हैं कुछ त पड़े उतान।

कवि प्रियांशु लिखिन है कविता, देख देख मनमानी,

कउन गाँव के आय या किस्‍सा अपना पंचे जानी।

-    कवि प्र‍ियांशु प्रिय

शनिवार, 21 सितंबर 2024

बघेली व्‍यंग्‍य कविता- हम सरकार से करी निवेदन - प्रियांशु प्रिय

                                                                   बघेली कविता  

                                  हम सरकार से करी निवेदन 

चारिउ क‍इती खोदा गड्ढा, बरस रहा है पानी,

फेरव रील बनाय रही हैं, मटक-मटक महरानी।

शासन केर व्‍यवस्‍था माहीं, मजा ईं सगला लेती हैं,

थिरक-थ‍िरक के बीच गइल मा, रोड जाम कइ देती हैं।

हम जो बह‍ि‍रे निकर गयन तो, लहटा रहै सनीचर,

मूडे से गोड़े थोपवायन, खास कांदव कीचर।

शहर के सगले गली गली मा, मिलय बीस ठे गड्ढा,

अंधियारे गोड्डाय जइथे, फाटय चड्ढी चड्ढा।

रील बनामय वालेन काहीं, अनुभव होइगा जादा,

गड्ढौ माहीं थ‍िरक रहे हें, दीदी संघे दादा।

हम सरकार से करी निवेदन, गड्ढन का भटबाबा,

रोड मा नाचैं वालेन काहीं, परबंध कुछु लगबाबा।

- प्रियांशु 'प्रिय'
मोबा- 9981153574

बघेली कविता - डारिन खीसा घूँस - प्रियांशु 'प्र‍िय'

                                                            बघेली कविता -               

                                      डारिन खीसा घूंस


                                       

एकठे गाँव के सुने जो होइहा, अइसा हिबय कहानी

दुई जन मिलिके खाइन पइसा, जनता मांगिस पानी।

सरपंच साहब सरकारी पइसा, लीन्हिंन सगला ठूस,

सचिव के संघे मिलिके भइया, डारिन खीसा घूंस।

टुटही फुटही छांधी वाले, सोमय परे उपास,

बंगला वाले बेउहर काहीं, जारी भा आवास।

रोड त एतनी निकही खासा, कांदव कीचर मा भरी रहै,

चउमासे के झरियारे मा, भइंसी लोटत परी रहैं।

बाँच रहा जउं चाउर गोहूं, भरिके एकठे बोरी,

बिकन के कोटेदार कहथे, रातिके होइगै चोरी।

कोउ वहां जो मुंह खोलै त, कुकुरन अस गमराय,

जेतना नहीं समाइत ओसे जादा पइसा खांय।

होई खासा नउमत दादू, हम न लेबै नाव,

चली बताई अपनै भइया, कउन आय व गाँव।

- प्रियांशु 'प्रिय' 

 मोबा- 9981153574

 

 

 

गुरुवार, 12 सितंबर 2024

बघेली कविता - 'बेरोजगार हयन'

                                                                 बघेली कविता
 
                                                         बेरोजगार हयन


दिनभर माहीं दुक्ख का अपने‌,‌ रोइत कइयक‌ दार हयन।
दादू हम बेरोजगार हयन।

चार पॉंच ठे डिगरी ल‌इके, यहां‌‌ वहां हम बागित हे।
चिंता माहीं दिन न‌ सोई, रात रात भर जागित हे।
आस परोस के मन‌ई सोचैं, कउन पढ़ाई करे हबय।
बाबा के मुहूं निहारय न,‌छाती मा कोदौ दरे हबय।
दोस्त यार‌‌, हेली-मेली‌,‌ सुध करैं नहीं भूल्यो बिसरे।
एक रहा जमाना जब सगले, फोन करैं अतरे दुसरे।
लइके कागज ऐखे ओखे, लगाइत खूब गोहार हयन।
दादू हम बेरोजगार हयन।

बाबा बोलय करा किसानी, मिलै कहौं रोजगार‌ नहीं।
अब खेती कइसा होई हमसे, जिउ टोरैं के तार‌‌ नहीं।
कुछ जने कहथे बाबा से, एकठे दुकान खोलबाय द्या।
ओहिन मा बइठाबा ऐखा, निरमा, साबुन‌‌ रखबाय द्या।
धंधौ खोलय खातिर भैया, पइसा फसमय के तार नहीं।
कर्जा एतना काढ़ लिहन कि, मॉंगे मिलै उधार नहीं।
खीसा मा रूपिया नहीं एक, रोइत असुअन के‌‌ धार‌ हयन।
दादू हम बेरोजगार हयन।

रिस्तदार अउ पट्टिदार सब,बाबा का फोन‌ लगाबत हें।
लड़िका तुम्हार काजे का है,बिटिया‌ रोज बताबत हें।
बाबा या कहिके रखैं फोन,का तुमहीं कुछु देखाय नहीं।
केखर बिटिया अई भला,जब लड़िका मोर कमाय नहीं।
सब देख देख चउआन हयन, किस्मत कइ‌ निहारिथे।
करम जउन लिखबा आयन है, कागज मा वहै‌ उतारिथे।
खासा संघर्ष दिखन जीवन मा, अउ झेलैं का तइयार हयन।
दादू हम बेरोजगार हयन।

प्रि‍यांशु 'प्रिय'
मोबा. 9981153574


गुरुवार, 18 जुलाई 2024

बघेली गीत - सबसे सुंदर, सबसे निकहा, लागय आपन गाँव हो

                            बघेली गीत
                       
     सबसे सुंदर, सबसे निकहालागय आपन गाँव हो

  

       शहर भरे मा बाग लिहन हम, होइगा पूर उराव हो

सबसे सुंदर सबसे निकहा, लागय आपन गाँव हो।

 

चुल्‍हबा के पोई रोटी व, केतनी निकही लागय।

अउर कनेमन चुपर के मनई, हरबी हरबी झारय।

बनय गोल‍हथी कढ़ी मुगउरी, अतरे दुसरे टहुआ।

जाय बगइचा टोरी आमा, बिनी हमूं एक झहुआ।

सोंध सोंध महकत ही माटी, चपकय हमरे पाँव हो...

सबसे सुंदर सबसे निकहा, लागय आपन गाँव हो....

 

दिखन शहर मा मरैं लाग है, आपस मा भाईचारा।

सग भाई अब सग न रहिगें, होइगा उनमा बटवारा।

बजबजात है नाली नरदा, गेरे रहय बेरामी।

एक दुसरे का चीन्‍हैं न अब, होइगें ऐतना नामी।

दिखन तलइया गै सुखाय अब, छूँछ परी ही नाव हो...

सबसे सुंदर सबसे निकहा, लागय आपन गाँव हो....



- प्रियांशु 'प्रि‍य'   

मोब. 9981153574 

सतना ( म. प्र. )




गुरुवार, 6 जून 2024

बघेली रचना - फलाने अरझे रहि‍गें

  फलाने अरझे रहि‍गें 

मिली जीत न हार, फलाने अरझे रह‍िगें,

जनता लिहिस बिचार, फलाने अरझे रह‍िगें।


उईं अपने का चार पाँच सौ पार बतामय,

अब होइगा बंटाधार, फलाने अरझे रहिगें। 


अतरे दुसरे इनखर उनखर बइठक लागय,

कइसौ बनय सरकार, फलाने अरझे रहिगें।


ईं अपसय मा साल साल भर लपटयं जूझैं,

अब बनय रहें ब्योहार, फलाने अरझे रहि‍गें।


पाँच साल हम गोहरायन सब बहिर रहे हें,

तब कहयं हमीं गद्दार, फलाने अरझे रह‍िगें। 


✏  प्रियांशु कुशवाहा ‘प्रिय’ 


बुधवार, 13 मार्च 2024

बघेली क‍विता - दादू खड़े चुनाव मा

बघेली क‍विता

दादू खड़े चुनाव मा

     

कर्मठ और जुझारु नेता, 

           बिकन रहे हें दारु नेता।

एक बोतल सीसी बहुँकामैं, 

          बोट खरीदैं चून लगामैं।

चंगु-मंगु बाटैं पर्चा,

           नेताजी के खूब ही चर्चा।

चारिउ कइती डीजे बाजय,

          उठिके मनई नींद से जागय।

हल्ला-गुल्ला मचा हबय हो, 

         देखा हमरे गाँव मा...

चीन्हैं नहीं परोसी जिनखा, 

        ऊँ दादू खड़े चुनाव मा... 


पइसा पेलैं मा टंच रहें हें, 

         दादू पूर्व सरपंच रहे हें।

घर दुअरा आपन बनबाइन,

         आने काहीं खूब रोबाइन।

फेरौ अबकी जोड़ैं हाथ, 

         तेल लगामय आधी रात।

एक दरकी जो देई साथ, 

        गाँव भरे के होय विकास।

छुअय मा जेखा घिनात रहें, 

       गिरथें उनखे पाँव मा।।

चीन्हैं नहीं परोसी जिनखा,

       ऊईं दादू खड़े चुनाव मा... 


✒ प्रि‍यांशु कुशवाहा
      सतना ( म.प्र.) 


मंगलवार, 12 मार्च 2024

बघेली कविता - 'करिन खूब घोटाला दादू

बघेली कविता 

करिन खूब घोटाला दादू


करिन खूब घोटाला दादू।

चरित्र बहुत है काला दादू।


गनी गरीब के हींसा माहीं,

मार दिहिन ही ताला दादू।


उईं अंग्रेजी झटक रहे हें,

डार के नटई माला दादू।


तुम्‍हरे घरे मा होई हीटर,

हमरे इहाँ है पाला दादू।


अबै चुनाव के बेरा आई,

मरा है मनई उसाला दादू।


✒ प्रियांशु कुशवाहा 'प्रिय'

      सतना (म.प्र.)

मंगलवार, 27 फ़रवरी 2024

बघेली मुक्‍तक

 बघेली मुक्‍तक - 


कोऊ नहींं कहिस क‍ि फरेबी रहे हें,

पूरे गाँँव मा बांटत जलेबी रहे हें।

बंदी हें जे तीन सौ छि‍हत्‍तर के केस मा,

एक जन बताइन समाजसेवी रहे हें ।


- प्रियांशु 'प्रिय'      

सोमवार, 26 फ़रवरी 2024

बघेली कविता - ' हुसियारी नहीं आबय '

              बघेली कविता - 


जउने दिना घर मा महतारी नहीं आबय,

जानि ल्‍या दुअरा मा ऊजियारी नहीं आबय । 


जउन खइथे अपने पसीना के खइथे,

हमरे इहाँँ रासन सरकारी नहीं आबय । 


ठाढ़ के मोगरा टेड़ कइके देखा , 

बेसहूरन के माथे हुसियारी नहीं आबय । 

 

कब्‍जाय लिहि‍न उँईं सगली जाघा जमींन,

अब अर्जी लगाए मा पटवारी नहीं आबय । 


द्रौपदी के धोतिया के खीचै दुसासन,

कलजुग मा कउनव गिरधारी नहीं आबय ।  


- प्रियांशु कुशवाहा 'प्रि‍य' 

मोबा; 9981153574                                               

रविवार, 25 फ़रवरी 2024

बघेली कविता - 'आमैं लाग चुनाव'

बघेली कविता -   

                          ' आमैं लाग चुनाव '    

हरबी हरबी रोड बनाबा, आमैं लाग चुनाव,

चुपर-चुपर डामर पोतबाबा, आमैं लाग चुनाव। 

          

बहिनी काहीं एक हज़ार है, भइनें काहीं लपकउरी,

जीजौ का अब कुछु देबाबा, आमैं लाग चुनाव।


जनता का अपने गोड़े के, पनहीं अस त मनत्या है।

वोट के खातिर तेल लगाबा, आमैं लाग चुनाव।


चार साल तुम चून लगाया, पचएँ माहीं कहत्या है,

फूल के सउहें बटन दबाबा, आमैं लाग चुनाव।


जनता आपन काम छाड़िके, लबरी सुनैं क ताके ही,

तुम निसोच रैली करबाबा, आमैं लाग चुनाव।


सालन से अंधियारे माहीं, रहिगें जे मनई भइलो,

उनखे घर झालर तुतुआबा, आमैं लाग चुनाव।


- प्रि‍यांशु कुुशवाहा 'प्रि‍य'  
        सतना ( म.प्र.) 
   मोबा- 9981153574  





शनिवार, 26 अगस्त 2023

बघेली कविता- हमरे यहां आजादी ही ?

 बघेली कविता-
                    हमरे यहां आजादी ही ?

रचनाकार - प्रियांशु कुशवाहा 'प्रिय'

सबके सउहें नीक कही जे, ओहिन के बरबादी है।
केसे भला जाय के बोली ? हमरे इहाँ आजादी है।

मजदूरन के चुअय पसीना,तब य भुइयाँ महकत ही,
सोन चिरइया बड़े बिहन्ने, सबके दुअरा चहकत ही।
रंग बिरंगा फूल का देखा, नद्दी देखा, हरियाली,
केतना सुंदर देश हबय य, चारिउ कइती उंजियाली।
सीमा माही लगे हमय जे, उनहिंन से है देश महान,
हमरे तुम्हरे पेट के खातिर, ठंडी गर्मी सहय किसान।
चोर, डकैती छुट्टा बागैं, उनहिंन के आबादी है।
केसे भला जाय के बोली ? हमरे इहाँ आजादी है....

गाँधी जी के फोटो काहीं, चारिउ कइती देखित हे,
सत्य अहिंसा बिसर गयन है, यहै मनै मन सोचित हे।
देश के खातिर चढ़िगें फाँसी,सुन्यन भगत के अमर कहानी,
चंद्रशेखर आजाद छाड़िगें,भुइयाँ माहीं अमिट निशानी।
कमलादेवी, लक्ष्मीबाई , अउर सरोजिनी, झलकारी,
माटी खातिर जान दइ दिहिन, बहिनी,बिटिया,महतारी।
चार ठे माला पहिर के भइलो,बाँट दिहिन परसादी है।
केसे भला जाय के बोली ? हमरे इहाँ आजादी है...

भाईचारा,साहुत बिरबा,जड़ से उईं निरबार दिहिन,
जाति धरम का आँगे कइके, मनइन काहीं मार दिहिन।
निबला काहीं मिलै न रोटी, फुटहे घर मा सोबत है,
निकहें दिन कइसा के अइहैं, यहै सोच के रोबत है।
गाड़ी, मोटर, बंगला वाले, अति गरीबी झेलत हें,
सबै योजनन के पइसा का, उईं साइड से पेलत हें।
लूट के पइसा भागें निधड़क, उनहिंन के अब चाँदी है।
केसे भला जाय के बोली ? हमरे इहाँ आजादी है...

 रचनाकार - प्रियांशु कुशवाहा 'प्रिय'
सतना , ( मध्यप्रदेश )   MOB - 9981153574



सोमवार, 10 अप्रैल 2023

लाड़ली बहना योजना पर आधारित प्रियांशु 'प्रि‍य' द्वारा रचित बघेली लोकगीत

लाड़ली बहना योजना 

एक कवि या लेखक का लिखना तभी सार्थक हो जाता है जब उसका लिखा जन जन के कंठ में बस जाए।
मेरा सौभाग्य ही है कि मध्यप्रदेश शासन की जनकल्याणकारी योजना #लाड़ली_बहना_योजना” पर आधारित मेरा स्वरचित #बघेली_लोकगीत ( चला चली बहिनी मिल खुशियाँ मनाई, नई योजना है आई...) हर सुबह "स्वच्छता गाड़ी" के माध्यम से पूरे #सतना शहर में बजाया जा रहा......
मध्यप्रदेश संस्कृति विभाग और नगर निगम सतना का आभार ❤🙏🏻

मध्यप्रदेश शासन की जनकल्याणकारी योजना "लाड़ली बहना योजना" पर आधारित बघेली लोकगीत सुनने के लिए क्‍लि‍क करें.............  

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 लाड़ली बहना योजना पर आधारित बघेली लोकगीत


चला चली बहिनी मिल खुशियाँ मनाई,
नई योजना है आई।।
शिवराज भैया के चली गुण गाई,
नई योजना है आई।।

1. नाम है एखर लाड़ली बहना,
नहिं आय मालूम अब न कहना,
फारम सब जन भरिके रहना।
चला लइके आधार चली खाता खोलबाई
नई योजना है आई......


2. एक हज़ार महीना अइहैं।
कोउ नहीं दलाली खइहैं।
सीधे खाते मा आ जइहैं।
अपने समग्र के KYC कराई,
नई योजना है आई......

3. उमिर है तेइस से लै साठ,
बरी बियाही बांध ल्या गांठ,
पइसा पउबै होइहै ठाठ।
परितगता बहिनिउ के होई भलाई,
नई योजना है आई.........

4. जिनखे बाहन है चरचक्का,
नहिं आय पात्र बताई पक्का,
जागा बहिनी खोला जक्का।
बहिनिन के भाग जगी मौका सुखदाई,
नई योजना है आई.........

5. फारम भरैं मोहल्ला अइहैं,
कैंप लगी फोटो खिचबइहैं,
लिख पढ़ बहिनी खुद लइ जइहैं।
कुल रहीं बहिनी औ कुलुक रही माईं,
नई योजना है आई......

© प्रियांशु कुशवाहा

















शनिवार, 14 नवंबर 2020

बघेली कविता.. ( गरीब केर देवारी ) ~ [ सैफुद्दीन सिद्दीकी "सैफू" जी ]

 

बघेली कविता...




आज दीपावली है। चारों ओर दिया जगमगा रहे हैं, पटाखों की आवाज़ से पूरा वातावरण गुंजायमान हो रहा है। परंतु अंतिम छोर पर खड़ा एक वह गरीब भी है जिसके भाग्य में न तो कोई दिन है और न ही कोई त्योहार। उसके अपने सभी खेत बिक गए हैं और अपने परिवार को दो जून की रोटी देने के लिए दिनभर दूसरों के खेतों में मज़दूरी भी करनी पड़ती है। अपने परिवार के सदस्यों के चेहरे पर मुस्कान देखकर वह सभी त्योहार मना लेता है। तो आज आपको उसी गलियारे से निकली हुई एक #बघेली_कविता से जोड़ता हूं, जिसके रचयिता हैं महाकवि सैफुद्दीन सिद्दीकी "सैफू" जी



( गरीब केर देवारी )


मन के बात मनै मा रहिगै, होइगै आज देवारी।

बातिउ भर का तेल न घरमा, दिया कहाँ ते बारी।


खेत पात सब गहन धरे हैं, असमौं न मुकतायन,

बनी मजूरी कइके कइसव, सबके पेट चलायेन।


अढ़िऔ तबा बिकन डारेन सब, दउर परी महंगाई।

पर के फटही बन्डी पहिरेब, कइसे नई सियाई।।


लड़िकौ सार गुडन्ता खेलै, गोरूआ नहीं चराबै।

कही पढ़ैं क तो भिन्सारेन, उठके मूड हलावै।


रिन उधार बाढ़ी टोला मा, कोउ नहीं देबइया।

खाँय भरे का है मुसलेहड़ी, हमहिन एक कमइया।।


दिन भर ओड़ा टोरी आपन, तब पइला भर पाई।

माठा भगर मसोकी सबजन, कइसव पेट चलाई।।


तिथ त्योहार होय सबहिन के, मुलुर मुलुर हम देखी।

केतना केखर रिन लागित हन, आँखी मूँद सरेखी।।


मनई के घर जलम पायके, मनई नहीं कहायेन।

डिठमन दिया देवारिउ कबहूँ, नीक अन्न न खायेन।।


उमिर बीतगै भरम जाल मा, भटकत भटकत भाई।

तुहिन बताबा केखे माथे, अब हम दिया जराई।।


सोउब रहा तो दादा लइगा, अब ओलरब भर रहिगा।

मँहगाई मा सबै सुखउटा, पानी होइके बहिगा।।


कउन लच्छमी धरी लाग ही, जेखर करी पुजाई।

कउने फुटहा घर मा ओखर, मूरत हम बइठाई।।


गाँवौं के कुछ मनई अइहैं, जो कजात बोलवाई।

केतनी हेटी होई गय जो हम, बीड़िउ नहीं पिआई।।


नरिअर रोट बतासौ चाही, कमरा दरी बिछाई।

है तो हियाँ फटहिबै कथरी, छूँछ खलीसा भाई।।


करम राम बेड़ना ओढ़काये, कुलकुतिया है मनमा।

आव लच्छमी तहूँ बइठ जा, पइरा के दसनन मा।।


झूरै झार पुजाई लइले, तोर हबै सब जाना।

गोड़ टोर के बइठ करथना, कइ लीन्हें मनमाना।।


बड़े बड़े मनइन के नेरे, तैं अबतक पछियाने।

उनहिन के घरमा बिराज के, खूब मिठाई छाने।।


अब महुआ के लाटौ लइले, फुटही देख मड़इया।

दालिद केर पहाड़ देखले, चढ़ले तहूँ चढ़इया।।


मन के दिया जराय देब हम, मानिउ लिहे देवारी।

तोर गोड़ धोमैं के खातिर, गघरिन आँसू डारी।।


कहु तो फार करेजा आपन, तोही लाय देखाई।

य जिउ के माला बनाय के, तोहिन का पहिराई।।


गनिउ गरीबन केर पुजाई, मान लिहे महरानी।

रच्छा कारी करै सवत्तर, तोहिन का हम जानी।।


घुरबौ भर के बेरा लउटै, कबहूँ व दिन देखब।

महा लच्छमी केर पुजाई, कइके रकम सरेखब।।


अँतरी खोंतरी मा घिउ भरके, लाखन दिया जराउब।

बूँदी के लेड़ुआ बँटाय के , हमू उराव मनाउब।।


इहै बिसूरत झिलगी खटिया, गा टेपुआय बिचारा।।

"सैफू" कहैं देवारी आई, दिया सबै जन बारा।।


~ सैफुद्दीन सिद्दीक़ी "सैफू"

रविवार, 22 मार्च 2020

बघेली कविता || कुठुली मा वोट देखाय परी || कवि सैफुद्दीन सिद्दीकी "सैफू" ||

बघेली कविता ...

 कुठुली मा वोट देखाय परी ~ 

> कवि सैफुद्दीन सिद्दीकी "सैफू" जी

जब चुनाव का समय आता है नेताओं और कार्यकर्ताओं की भारी भीड़ गांवों में वोट मांगने और चुनाव का प्रचार - प्रसार करने निकलती हैं। उस भीड़ के अंतिम छोर में खड़ा गांव का वह गरीब भी रहता है जिसे एक वक्त की रोटी के लिए दिनभर खेतों में पसीना बहाना पड़ता है, जिसका सेठ के यहां पहले से ही हजारों का उधार है और अब वह भी उसे अन्न देने से इंकार कर देता है। अंत में उसे नेताओं के भाषण में ही भविष्य की रोटी, कपड़ा, घर, पानी, बिजली इत्यादि नज़र आने लगते हैं। वह भी उस प्रचार-प्रसार में अपना सर्वस्व देने लगता है। परंतु चुनाव होने के पश्चात, कुर्सी मिलने के बाद कोई नेता उस गरीब को देखना भी पसंद नहीं करता। इन सबको अपनी खूबसूरत सी कविता में ढालने का काम किया है स्व. सैफुद्दीन सिद्दीकी "सैफू" जी ने.... तो आइए सुनते है बघेली कविता "कुठुली मा वोट देखाय परी".....

_ प्रियांशु कुशवाहा "प्रिय"
मो. 9981153574, 7974514882

कविता सुनने के लिए टच करें।


रविवार, 23 फ़रवरी 2020

बघेली कहानी ~ दुलहिन के डोली ~ सैफुद्दीन सिद्दीकी "सैफू"

बघेली बोली के नामवर साहित्यकार श्रद्धेय सैफुद्दीन सिद्दीकी सैफू की बघेली कहानी-


                    [ दुलहिन के डोली ]

कै बजे होइगे फुलिया !रमदइला खटिया मा परे परे खखारिस औ पूछिस - फुलिया प इरा के सथरी खुरभुराइस औऔ उठके बइठ गय।कहैं लाग अबै तो सुकबा नहीं उआ,अइसन लागत है के आधी रात होई,पुन कहिस के काहे पुछत्या हया,कहूं जांय का त नहि आय।
    रमद इला कुछदार चुपान रहा फेर कहिस-" बासी रोटी ओटी त न धरे होइहे,आज ठकुराइन के काम से थोड़ी रसपताल भर जांय का रहा है।न जानी केत्तीदार पहुंचब,सांझ त होइन जई,डांकदर साहेब का चिट्ठी देब,फेर जब उनखर तार लागी आबत रहिहैं,पै हम त काल्है लउट पाउब।

फुलिया चट्ट पट्ट उठी,औरचुल्हबा मा आगी सुलगाय के चार ठे अंगाकर बनाय दिहिस,आलू भूंजिस,औ नोन मिरचा धइके एक फटही अग उछी मा बांधके लै आयी।

रमदइला लाठी मुरेठी औ रोटी कड पुटकी लइके चल दिहिस,रहै कुछ भिंसारै पै अंधियार रहै।फुलिया घर बटोरिस फेर बासन माजै लाग।तलघे भिंसारौ होइगा।सुरिज उई आये,रख उनी का गोरुवा डहरै लागे।गांव के मनई खेतन कइती जांय आमै लागे।

सुरिज महराज माता के कोख मा  समायगे।धीरे धीरे अधियारी घुपै लाग,तबै इजुली बिजुली कुछू नहीं रही,कोऊ आगी बार के उंजियार कर लेय,कोऊ तेल के दिया जराय के ध ई लेबा करै।हां ठकुरन के घरमा औ टिर्रा बनिया के दुकान मा जरूर लालटेम जरत रही है।

फुलिया संझबाती मा सनकटइया लेस के थोरका अंजोर कइ दिहिस, पुन ओखे चुल्हवै के नेरे भर उजियार रहै,बांकी पूर घर अंधियारेन मा सकान रहै।

परोस केर महरनियां काकी दुआरे मा ठाढ़ होइके नेरिआंय लाग- ओ फुलया भुजी!! चलते हा,आज पण्डितन के मड़बा आय,कुछ बियाह उआह गाय अई।फुलिया बहिरे निकरी औ कहिस के चलित हन परोसिन,थोड़का दूसर धोतिया तो बलद लेई।देखत्या नहीं भोगै भोगा है। का करै बिचारी,एकठे धोतिया कुछ नीक हस रहै,रहै तो ठेगरहाई,पै ओढ़ना कुछ नीक रहै।ओहिन का पहिर के तयार होइगै पुसाग बनउबै करै तो काहे के माथे बनबै,सगली उमिर ठकुराइन दयामंत रहीं हैं तो कबहूं तिथ त्युहार अटही फटही धोतिया दइ देबा करैं,ओहिन का फुलिया जोगे जोगे पहिरबा करै तो मइकेवाली लाखे के कंठी गरे मां बांध के हरी घरी फुटहा अइना देखा करै।

ठठाठट्ट मनई भरा देखाय,पंडित बाबा के दुआरे मा ।खासा सरउती चरचराय रही तै,गाँव भर के मेहरिया बियाह गामैं मा टिकी रहैं।

घुरबा ठइयां फुलिया औ महरनिया चुपारे बइठ गई और ओहिन ठांय से सब रजा मजा लेंय लागीं।कोऊ बइठऊं भर का नहीं पूछिस,पूछै कइसन तबै मनई बहुत छूत मनबा करै।कोल कहार त बिचारे कुंइयन से पानी तक नहीं भरैं पावत रहें,नदिया तलाब मा त ई आपन घटबै अलग अलग बनाय लेत रहे।पढ़ेव लिखे नहीं रहत रहे,एसे कउनौ मेर के बतकहाबौ नहीं कर सकत रहे।सब मान अपमान चुपारे सहि लेबा करैं।

फुलिया कुछ दार त बइठ रही,फेर कहै लाग - "चला परोसिन घरे चली,का भूतन अस बइठ हया,बिटिऔ भर का त नहीं देखे का पायन,घुरबा मा बइठे बइठे जिउ उकरीहिन आइगा।सब मन ई अपनेन हाव भाव मा बिल्लियान हें।हमहीं तुमही पुछइयौ को है।

सन्चै दूनौ उठी अउर अपने घर कइत चल दिहिन।फुलिया त अपने घरेन मा परेन परे बियाह गामै लाग,औ अपने काजे के सुधि कइ कइ टेघरी जाय।ओही लागै कि जाना हमरै बियाह होइ रहा है।ढोलकी बाज रही है कोलदहकी होइ रही है। अंगना मा भात केर हाड़ा चढ़ा है,दार अधचुरी होइगै ही,अब बरात अउतै होई,नेउतहन्नी चारौ कइत मेड़राय रही है।अगना मा  मगरोहन गड़ा है।बिचारी सुध करै औ मनै मन मगन होइ जाय।सोचतै सोचत सोइगै,सकारे जब खूब सुरिज चढ़ि आबा तब ओखर नीद खुली।

दुपहर के रमदइला लउटि आबा,पहिले ठकुराइन के बखरी गा फेर आयके भुइन मा पसर रहा।

फुलिया माठा और भगर रांधे रहै,परुस के लय आई औ फुटही लोटिया मा पानी अंउजिके धइ दिहिस।

रमदइला थोड़ थोड़ खाइस फेर कहैं लाग के फुलिया ओढ़ै का दइदे,जाड़ हस लागत है।जनात है कि बोखार चढ़ि अई।फुलिया फटहा धूसा लइके धई दिन्हिस औ कहै लाग के गली घाट के थकबाह होई,काल्ह से तौ हीठत आह्या,भला मनई के एतना बड़ा जिउ चार ठे रोटी मा दुई दिन टंगा रहत है,औ बइठ के गोड़ दबामै लाग।रमदइला के जिउ लरमानै रहै।एसे बखरिउ नहीं गा,घरै मा परा रहबा

आज पंडितन के घर मा बरात अई,दुआरे मा खूब सजनई कीनगै ही,सांझै से नगरिया सहनइया बाजै लागी हैं,सगला गाँव के भइपहा एक्का दुक्का आमैं लागे है।मेहेरिया सोहारी बेलती हैं।अहिर काका तरकारी काटै मा टिका है। गैस बत्तिन के सफाई पोछाई होय रही है। एक्का दुक्का लेसरतिउ जाती है।

भउजी ! ओ फुलिया भउजी!!चल बरात देखैं न चलिहे दुलहा का त देख ल्याब कउन मेर के है।

फुलिया दुअरा मां झांकिस औ कहिस के घरमा कइयक रोज से लरमान हें उनहीं अकेले छाड़िके कहां जई परोसिन, रमदइला बोल पड़ा-" काहे जाते नहीं आहे,हम परे न रहब हां एतना जरूर किहे दुअरा मा टटिया ओढ़काय दीन्हे कहौं कूकुर बिलार न घुसै।

परोसिन तुहूं देख लिहा की नहीं-"जना पंडित बाबा के पहुना लांगड़ है।"महरनिया मुहूं बर्रायके कहैं लाग- "एक कई भुजवा तेली,एक क ई राजा भुज्ज" क इसा जोड़ी बइठाइन ही।लागत है पंडित बाबा के बिटिया के करमै नसान रहा है।

हां बहिनी,ई बड़कवा घर दुआर औ डेरा साज तो देखतै हया,इनही अउर का करै का है।या लड़िकौ क उनौ पुरानिक केर होई।देखा न चढ़ाव मा सोनेन सोनेन के गहना लाये हें।

तलघे मेहरिया दुआर चार मा मूसर मथानी भमाय के भीतर चली गयीं।बरात जनमासे गै देखनहरिउ लउट लउट के अपने अपने घर चली आयीं।

सकारे रमदइला उठके दुआरे मा बइठ रहै।ओखर जिउ लरमानै रहै,जाड़न के मारे खूब धूसा लपेटे रहै।दबाई सबाई कुछू रहबै न करै परा रहबा करै दइउ के भरोसे।

फुलिया कुन कुन पानी औ मुखारी लै आयके धई दिहिस,रमदइला मुखारी करिस औ धूसा मा मुंह पोछि लिहिस।

ठाकुर मूरत सिंह, रमदइला के दुआरे मा ठाढ़ भे,बहुत सोचान रहैं,कहै लागे कि रमदइला तैं ठण्डी खाय गये हा,तोरे बेरामी से त हमार हाथै गोड़ ढील होइगे है। आज चले जये भैरम बैद के नेरे नारी देखाय दिहे औ दबाई लै अये,बताय दिहे कि ठाकुर पठइन ही।

हां एक बात बताव रमदिला,के पंडित बाबा के बरात आयी है,बड़ा खुरखुंद कये लाग हें,उनखर कहनूत है कि बिटिया सयान ही,हम‌ साथै बिदा कराउब,पंडित बाबा बिदा करै का कहि दिहिन ही,पै इहा कोहू न नहीं बताइन,आज सकारे हमसे कहिन के डोली बाले मनई नहीं मिलैं ।एक जन सरमनिया भर मिला है।

अब तहिन‌ बताव गांव घरके बात आय,म्याछा त सबै केर जांय का है,अब कइसन कीन जाय।

रमदइला कहिस- सुनी मालिक एई पंडित फुलिया का कुंइयां मा पानी नहीं भरैं दिहिन एक रोज तलाये मा नहात रही है त गारी देत रहे हैं कहैं छीटा मार दिहे है ,भला एतना उछिन्न करै का होत है? उनखे बिटिया के म्याना लई जाब ता छुतिहा न होई जिहैं।

ठाकुर कहैं लागे,देख रमदइला गांव घरेन मा सब होतै रहत है।पुरान बात के गठरी नहीं गठिआमै का होय।आज बड़मंसी के बात सामने है।जो हम तुम सब कोऊ इहै मेर कहैं लागी तो अन्तै बाले का कहिहै।

अबै सब जन इहै जानत हें कि ठकुरन के रहत गाँव केर मरजादा न जांय पाई।

फुलिया भितरे से बोल परी- उई लहौं न जइहैं किसान,आज चार रोज से खाइन पीन नहीं ,जिउ नहीं चलै ,कोहू आने का हेर लेई,हम आपन देखी धौउ पंडित के।

ठाकुर कहैं लगे,फुलिया भउजी एतने दिन तक हमार लोन पानी खाये हा,आज थोड़ का काम अढ़ै दिहेन तो नाहीं करते हा।भला अइसय चाही,बिटिया बाली बात ही नहत त हम कुछू कहबै न करित।

रमदइला कहिस - ठीक है मालिक,हम अपना के नोन पानी चुकाय देब,रमदइला के रहत अपना के बात खाली न परैं पायी।हम अपना के हुकुम न टारब,चाहे जउन कुछू होइ जाय।

सकारे बिदा होइगै,बिटिया खूब गोहार मार के रोइस ,गाँव भरे के मेहेरिया भेट करिन,ब्युहर,ठाकुर,ठकुराइन,सब रोइन।रमदइला अउर सरमनिया बिटिया का डोली मा बइठाय के चल दिहिन ,गाँव निकरत भर बिटिया रोउतै गै।

दुसरे रोज बिटिया का पहुचायके रमदइला घरे आयगा।दुलहिन बाली डोली दुआरे मा परी रहै,तिरपट बोखार चढ़ी रहै,छाती मा पीरा रहै,फुलिया दबाये रहै,बलधै के जाड़ पटांय जाय,पै दलकी काहे का धिमाय,बोखार त बोखारै आय।

रात के रमदइला बर्राय उठै,फुलिया डोली पंडित जी के घरै पठै दिहे,ठकुरन से कहि दिहे कि उनखर लोन पानी रमदइला चुकाय दिहिस अब ओरहन न देहै।तै रोये गाये न,अब हम जाब लेबउवा आयगे है।

फुलिया हरी घरी उठिके हांथ गोड़ मूदै ओखे आखी से टप्प टप्प आंसू बहैं,रात भर जाग के पार कई दिहिस ।

बड़े सकारे उठी,घर झारैं बटोरै लाग,सुरिज उइ आंये,सोचिस कि उठायके बइठाय देई,पै रमदइला अब नहीं रहा,ओखर मरी देह भर पइरा मा पड़ी रहै।

फुलिया का सगली धरती अंधियार देखांय लाग,कोऊ आगे  पीछे नहीं रहिगा।गोहार मारिके रोमै लाग,सगला गांव ससान आबै,जे जइसन सुनै तइसै धउरत आबै,रमदइला का डेहरी के बाहर पराय दिहिन ।

ठाकुर ठकुराइन पंडित बाबा सबै घायके आये,ठाकुर तो खूब रोइन,ठकुराइन अपने लगुआ का छुपकाये रहै।

सब जन देखिब,एक क ई दुलहिन के छूंछ डोली परी रहै,औ दुसरे कई रमदइला के डोली।फुलिया के सगला सुक्ख बटोरिके लये चली जात रहै।

~  सैफुद्दीन सिद्दीकी सैफू जी 



अपने विंध्य के गांव

बघेली कविता  अपने विंध्य के गांव भाई चारा साहुत बिरबा, अपनापन के भाव। केतने सुंदर केतने निकहे अपने विंध्य के गांव। छाधी खपड़ा माटी के घर,सुं...