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शनिवार, 19 जुलाई 2025

बघेली कविता - कक्‍कू के परधानी मा

कक्कू के परधानी मा

खासा दच्चा लागत है अउ कादव होइगा पानी मा
रोड नहीं बन पाई असमौं , कक्कू के परधानी मा।

कादव कीचर मा रेंग रेंग, लड़िका बच्चा स्कूल जायं।

गामन के यहै समस्या का, नेताजी रोजै भूल जायं।

गाड़ी वाहन से निकरय वाला, अंतरे दुसरे गोड्डाय रहा।

घिनहे रस्ता अउ हीला मा, पहिरे ओन्हा लेथराय रहा। 

आवेदन उनखे लघे जाय त, गारी बरसय बानी मा।

रोड नहीं बन पाई असमौं, कक्कू के परधानी मा।


जब चुनाव के बेरा आबय, घर घर माहीं आबत हें।

बीस मेर के वादा कइके, वोट ईं सबसे मागत हें।।

जीत गें जबसे अपने काहीं, देउता मानय लागे हें।

इनहिंन के वोटर अब इनहीं, घिनहे लागय लागे हें।

तनै लिहिन दस मंजिल आपन, जनता रहिगै छान्ही मा।

रोड नहीं बन पाई असमौं, कक्कू के परधानी मा। 


सीधी सतना रीमां सबतर, गांव गांव या हाल रहै।

सुनय नहीं कोउ इनखर, जनता रोबय बेहाल रहै।।

सुरुक लिहिन सरकारी पइसा, सोमय टांग पसारे।,

भोग रही ही भोगय जनता, धइके हाथ कपारे।

कवि प्रियांशु लिखत हें कविता, बाचैं रोज कहानी मा।

रोड नहीं बन पाई असमौं, कक्कू के परधानी मा। 


- कवि प्रियांशु 'प्रिय'
( 19 जुलाई 25 )






गुरुवार, 15 मई 2025

बेटी की विदाई पर बघेली कव‍िता

 बेटी की विदाई पर बघेली कव‍िता  


अम्मा रोमयं , बहिनी रोमयं, रोमयं सगले भाई‌‌,

बाबौ काहीं खूब रोबाइस, बिटिया केर बिदाई।

बिटिया केही भए मा बाबा, खूब उरांव मनाइन ते,

अपने अपने कइती सबजन, कनिया मा छुपकाइन ते।

चारिउ कइती जंका मंका, खूबय खर्चा कीन्हिंन तै,

यहै खुशी के खातिर बाबा, सबतर नेउता दीन्हिन तै।

कइ दिन्हिंन अब काज हो दादा, होइगै वहौ पराई।

बाबौ काहीं खूब रोबाइस, बिटिया केर बिदाई.......

घर के बहिनी बिटिया आईं, मेंहदी लागय लाग,

सुध कइ कइ के काजे केहीं, ऑंसू आमय लाग। 

आस पड़ोस के सबै मेहेरिया, घर मा आमय लागीं,

सबजन साथै बइठिके देखी, अंजुरी गामय लागीं।

रहि रहि ऑंसू बहय आज हम, कइसन केर छिपाई,

बाबा काहीं खूब रोबाइस, बिटिया केर बिदाई.......

फूफू काकी मउसी बहिनी, ऑंसू खूब बहामय,

बाबा रोमय सिसक सिसक के, बेटी का छुपकामय।

बिदा के दरकी बिटिया काहीं , अम्मा गले लगाए,

रोए न लाला बोलि बोलिके, ऑंसू रहै बहाए।

सीढ़ी‌ के कोनमा मा बइठे, रोमय सगले भाई,

बाबा काहीं खूब रोबाइस, बिटिया केर बिदाई....... - कवि प्रि‍यांशु 'प्र‍िय' मो. 9981153574

ऑपरेशन सिंदूर

ऑपरेशन सिंदूर
भारत बदला लइ लीन्‍हि‍स अ, हउकिस खासा तान के, 
निकहा अइसी तइसी होइगै, घिनहे पाकिस्‍तान के।
घर दुआर सब निपुर गें खासा,  होइगै ही बरबादी।
आधी रात के हमला माहीं, जब मरे हें आतंकवादी।  
पहलगाम मा तै मारे तै, चीन्‍ह चीन्‍ह जब मनई।
होत ही कइसा पीरा सारे, या तोखा अब जनई।
दुलहिन के स‍िंदूर उजारे, महतारि‍न केर लोलार।
बह‍िनिन के भाई का मारे, बेटबन केहीं प्‍यार।
मनई नहीं सनीचर आहे, बिन लात खाए न मनते है। 
भारत के ताकत तै खासा, निकहे सेहीं जनते है।
जब पिठांय सुहुराय तोर तब, भारत कइ नि‍हारे।
कचर गए तै कइयक दरकी, सुध कइ लीन्‍हें सारे।
ऑपरेशन सिंदूर न ब‍ि‍सरी, बिसरी न य बदला।
अइसय जो करतूत रही त,पाक य निपुरी सगला।
काश्‍मीर भारत के है या रोज सकन्‍ने बाँचा कर। 
दोख द‍िहे तै बाद मा पहिले, आपन काँपी जाँचा कर।
भारत के सेना दुश्‍मन काहीं, हेर हेर के मारत ही।
कहौं लुका होय दुनियाँ मा, गोड़े के नीचे गाड़त ही।     
सौ सौ बेर प्रणाम करिथे, हे भारत केर जवान। 
होए से तुम्‍हरे अमर हबय या, आपन हिंदुस्‍तान। -कवि प्रियांशु 'प्र‍िय' मोबा. 9981153574

शनिवार, 3 मई 2025

‘सैफू के बघेली गीत’ कृति की भूमिका

 

‘सैफू के बघेली गीत’ कृति की भूमिका जो कि अवधेश प्रताप सिंह विश्वविद्यालय में हिंदी विभाग के अध्यक्ष रहे डा. भगवती प्रसाद शुक्ल जी द्वारा 1982 में लिखी गई थी।

'आंचलिक बोलियों में साहित्य सृजन का काम रचना धर्मिता का सुविधा प्रद रूप नहीं है। क्योंकि बोलियों के साहित्य की एक सीमा होती है, उसका राष्ट्रव्यापी प्रचार प्रसार नहीं हो पाता – इसलिए महत्वाकांक्षी साहित्यकार कभी भी आंचलिक बोलियों में सृजन नहीं करते, क्योंकि वे जानते हैं कि साहित्य के इतिहास में उनका नाम इस आधार पर नहीं रेखांकित हो सकता -- इसलिए जो भी साहित्यकार आंचलिक साहित्य के सृजन में लगे हुए हैं। वे तलवार की धार पर चल रहे हैं।
सैफू का मार्ग भी कंटकाकीर्ण है। यह कल्पना करना भी दुरूह लगता है कि वे चालीस वर्षों से नितांत उपेक्षित एक आंचलिक बोली बघेली में साहित्य सृजन कर रहे हैं। यह उनके साहस और साधना का परिचायक है। मैं उन्हें कोई पैंतीस वर्षों से जानता हूँ। वे रोज लिखते हैं। लेखन को धर्म मानकर लिखते हैं। समाज और देश के लिए लिखते हैं। धरती और किसान के लिए लिखते हैं।
‘सैफू’ बघेली के लिए अपरिहार्य हैं। बघेली की इस गागर को उन्होंने भाव के अमृत से भरा है। इसीलिए आज उनकी कविता की कीर्ति कलश उच्चासन पर आसीन है।
‘सैफू’ के बघेली गीत उनकी अद्यतन कृति है। इसमें उनके इकतालीस गीत संग्रहीत हैं। इसमें विषय की विविधता है। कथ्य की विदग्धता है। शिल्प का कौशल है, भाषा जन जन में व्याप्त बघेली है। इसमें आरोपित कुछ भी नहीं, जो कुछ है सहज है, स्वाभाविक है।
बघेली के गीत में, हर मौसम के गीत हैं। फागुन के, सामन के, ग्रीष्म के, सभी में टटकापन है। सरसता है – किसी किसी ऋतु पूरक गीत में मन के मीत का मोहन आमंत्रण है।
‘टपकै मल महुवा अधरतिया,
होइगे हें बलम मोर मनवसिया।
सेजा विछाऊँ सुपेती बिछाऊँ,
सोमैं न आवा बलम रसिया,
टपकै मन महुआ अधरतिया।।‘’
इन गीतों में एक प्रकार की निजता है। जिसे सैफू की निजता कहेंगे। यहाँ की धरती की सुधर मेहेरिया, का रूप कितना जीवंत है –
‘रहै बिदुरात सांझ बइठ डेहेरिया,
कहौं केसे राम मोर सूधर मेहेरिया।‘’
मैंने सैफू के गीत पढ़े भी हैं और सुने भी हैं। इनमें बघेली की आत्मा बोलती है। इनकी धड़कनों में बघेलखंड की पीड़ा, हर्ष, विषाद सभी कुछ सन्िित है।
सैफू से बघेली गीत जन जन में प्रचलित हों, घर घर में गाये जाऍं यही मेरी कामना है।
रीवा डा. भगवती प्रसाद शुक्
05/06/1982 आचार्य एवं अध्यक्ष हिंदी विभाग
अवधेश प्रताप सिंह विश्व. रीवा मध्यप्रदेश

सोमवार, 21 अप्रैल 2025

बघेली शृंगार कव‍िता

बघेली शृंगार कव‍िता

आसव काज का भा पिंटू केहीं, निकही मेहरी पाइन,
दुलहिन देखैं केर बोलउआ, घर घर मा पहुंचाइन।

टोला भरके जुरैं मेहेरिया, देखैं मुहुँ उघारैं,
अहिमक करैं बड़ाई ओखर, ओहिन कइत निहारैं।

एक जन कहैं कि खासा सुंदर, लागत ही महारानी,
फूल गुलाब के जइसन लागय, महिपर अस ही बानी।

ऑंखिन काहीं रहय झुकाए,‌ सबका देख लजाय,
छुई-मुई के पउधा जइसन, चुप्पे से सकुचाय।

ओठ के नीचे तिल है ओखे, जउने डीठ न लागय,
जइसा लड़िकन के माथे मा, टीका अम्मा लगाबय।

गोड़े माहीं पायल पहिरे, करिहां माहीं सकरी,
छनछन केहीं धुन मा लागय, गाबय कोउ कजरी।

ओठन माहीं लगी ही लाली, लागय एतने प्‍यारे,
गुड़हल केहीं फूल या जइसा, खिला होय भिन्‍सारे। - कवि प्रियांशु 'प्रिय' सतना (म प्र)

बुधवार, 9 अप्रैल 2025

चैत्र महीने की कविता

 चइत महीना के बघेली कविता 



कोइली बोलै बाग बगइचा,करहे अहिमक आमा।
लगी टिकोरी झुल्ला झूलै,पहिरे मउरी जामा।
मिट्टू घुसे खोथइला माही,चोच निकारे झांकैं।
कुछ जन बइठ डेरइयन माही,बच्चन काहीं ताकैं।
राई मसुरी चना कटरिगा,अब गोहूं के बारी‌।
खेतन माहीं चरचरायके,लगी कटाई जारी।
भिंसारेन से जागै मन ई,बोलि न पाबै कउआ।
महुआ बिनै जांय घर भरके,लइके टोपरी झउआ‌।।
टेसुआ लहलहायके फूला,सेमर है गमरान।
पत्ता सब हेरान हे देखी,फूलै फूल जुहान।
मूड़े बोझा धरे बहुरिया देखी ,क इसन हीठै टनमन।
छम छम छम छम पायल बाजै,होइजाय हरियर तन मन।
हरवेस्टर से होय कटाई जिनखे खेती जादा।
लंबी मूछ मुडै़ठी बाधे,बागि रहे है दादा।
चैत महीना लगै सोहामन,मन मा खुशी जगाबैं।
किहिस किसान परिश्रम जेतना,व ओतनै फल पाबै।
एहिन से है सब किसान के साल भरे के तोरा।
कुलुकैं लगी घरौ के मनई,अन्न अइ भर बोरा।।
कहै प्रियांशु धन्न किसनमे,लेई मोर प्रणाम।
तोहरेन मेहनत से सब पामै,जीवन मा आराम। - कवि प्रियांशु 'प्रि‍य'

बघेली क‍विता - आसव के सरपंची मा

बघेली कविता
आसव के सरपंची मा
आसव‌ के सरपंची माहीं,‌ तनिगा खासा बंगला,
सरकारी पैसा काहीं ईं, मसक लिहिन‌ ही सगला।

सचिव साहब के खासा जलवा, पहुड़े टांग पसारे,
खाय खाय गभुआर के पइसा, सोमैं थूथुन फारे।

हम पंचायत भवन मा देखन, बंद रहत है ताला,
गोरुआ भइसीं लोटि रहे हें, कोउ न पूछय वाला।

उहय भवन‌ के भीतर भइया, बइठ लाग हें दद्दी,
धइ के चिखना देशी‌ वाला, छानैं पउआ अद्धी।

ऊपर सेही जॉंच करैं जब, आबत हें अधिकारी,
उनहूं बइठिके इनखे संघे, पेलय खूब सोहारी।

बॉंच रहा जउं चाउर गोहूं, भरिके चार ठे बोरी,
बिकन‌ के कोटेदार कहत‌ हें, रातिके होइगै‌ चोरी।

घर सेहीं जनपद पंचायत, सबतर इनखर जलवा,
नीचे से ऊपर तक सलगे, छानैं पूड़ी हलवा।

केसे जाय गोहार‌‌‌ लगाउब, केसे करब शिकायत,
सब इनहिन के मनई आहीं, सांसद अउर विधायक।

कवि प्रियांशु कहत हें भाई, हम न लेबै नाव,
चली बताई अपनै पंचे, आय कउन व गाँँव। - कवि प्रियांशु 'प्रिय' सतना (म.प्र.)

मंगलवार, 4 मार्च 2025

प्रकृति की खूबसूरती पर बघेली कविता

 प्रकृति की खूबसूरती पर बघेली कविता  

नई नवेली दुलहिन जइसा धरती करे सिंगार।
हरियाली के बिछा बिछौना,देखी सबतर हार।।
गोहू गजब गलेथा देखी,होइगा हबै जवान।
छप्पन इंची सीना कीन्हे,घूमै फिरै किसान।
सरसो राई ओड़िके पियरी,मंद मंद मुसकाय।
अरसी कलशा लिहे ठाढ़ ही,मन माहीं हरसाय।
मनमनाय के फूली अरहर,करहे अमिया आम।
चढ़ा बसंती रंग है देखी,सुबहौ दुपहर शाम।
तितली भौरा भनभनाय के लगे खूब मेड़रांय।
धरती सजी गजब के देखी,रितुराज गा आय।
ठंडी ठंड़ी हबा चलै जब,बिरबा लहरा लेय।
प्रकृति केर है गजब नजारा,जिउ हरियर करि देय।
चली गाँव मेड़़न मा बागी,खेतन माही घूमी।
गाँव केर पावन माटी का,चली चली सब चूमीं।
कहैं प्रियांशु स्वर्ग के दर्शन सब जन करी निसोच।
शिमला कुल्लू और मनाली,काहे जई निसोच। - कवि प्रि‍यांशु 'प्रिय' सतना (म प्र)

भाईचारा मरिगा दादू

भाईचारा मरिगा दादू

भाईचारा मरिगा दादू, मनई हबय कसाई,
एक बीता के जाघा माहीं, लपटयं भाई भाई।

नहीं आय अब प्रेम प्यार कुछ, मनई है खिसियान,
सगला दिन बस पैसा केहीं पाछे है पछियान।

पइसै सेहीं बनय रहा है मनई खूब बेउहार,
पइसै वालेन केही जलवा उनह‍िंंन के तेउहार।

पइसै वालेन केहीं देखी, पाछे सगले बागय,
जेखर खीसा छूंछ रहथै, ओसे दूरी भागय।

पइसा देखि‍के नेरे अइहैं, साथी हेली मेली,
नह‍िं त दूरी रह‍िहैं तुमसे, भले बोलाबा डेली।

पइसा रही जो तुम्‍हरे ठइआं, दुश्‍मन भाई बोली,
नेता ओता गोड़न गिर‍िहैं, रूप‍िया अइसा डोली।

पइसै खातिर भटक रहा है, मनई सांझ सकारे।
सगला दिन व जिउ टोरथै , आंखीं काढ़े काढ़े ।।

कहैं प्रियांशु दिखन जमाना, बदला है धौं कइसा।
ओहिन कइती होंय सबय जन, भरा है जेखे पइसा।।

- कव‍ि प्रियांशु प्रिय

रविवार, 5 जनवरी 2025

मोबाइल की लत पर बघेली क‍विता

 मोबाइल की लत पर
बघेली क‍विता
 

                        
मोबाइल बिन नीक न लागै,बिलकुल खाना पीना।
ऐखे बिना न परै रहाई,मुश्किल होइगा जीना।
खटिया से उचतै सब मन ई मोबाइल का देखै।
वाट्साप ग्रुप फेसबुक देखि आपन आंखी सेंकै।
बंद परी ही टी वी घर मा,कोहू नहीं देखइया।
पूरी सउख करे मोबाइल, कुच्छ न पूछा भैया ।
मोबाइल मा देख बीडियो ,व्यंजन घाल बनामै।
मगन रहै मोबाइलै माहीं, दारौ भात जरामै।
आई फोन लिहे उई बागै,लाखन केहीं आबै।
बापन केर कमाई माहीं, काहे न चमकामैं।
इंस्टाग्राम फेसबुक देखैं घिनही घिनही रील।
घरहूं बाले कुछू न बोलै,दये है अहिमक ढील।
कुछ जन लड़िका ठीक करत हे,करतिउ हेमै पढ़ाई।
मोबाइलै से पढ़ै रात भर,सबतर होय बड़ाई।
कहैं प्रियांशु मोबाइल मा हमै नीक औ नागा।
निकहे निकहे चैनल देखा,आखी मूंद न भागा - कवि प्रियांशु 'प्रिय'

यातायात के नियम पर कविता

यातायात पर बघेली कविता


भरर भुरुर अउ परर पुरुर तुम, अस गाड़ी भरउत्या है।
हाथ गोड़ टोरबाए भाई, रसपताल मा अउत्या है।

कालेजन से निकर्या भइलो,एक्सीलेटर पेल्या।
देखिके बिटियन काहीं गाड़ी, अधाधुंध तुम रेल्या।
बने रह्या तुम हैवी ड्राइवर, छाने‌ अद्धी पउआ।
रसपताल के फेर दवाई, चली‌ एक एक झउआ।।
हेलमेट नहीं बेसाह्या अबतक, खुल्ला मूड़ चलाया।
दुर्घटना का दिहा तू नेउता, आपन जान गबाया।।
मन‌ई धरन चलाबा भाई, गाड़ी अउ स्कूटी ।
नहीं त निपुरी थुथून थोभरा, हाथौ गौड़ौ टूटी।।
यातायात के नियम कायदा, ल्या तू सगला जान।
नहीं जो फसिहा चौराहा मा, कटबै करी चलान।।
लाल पियर हरियर बत्ती सब, देखे रह्या सचेत।
कबय रूकैं का, कबै चलय का, देती हैं संकेत।
धीम कइ लिहा गाड़ी आपन, जली जो पीली बत्ती।
लाल‌ लाल जो लाइट चमकी, बड़्या न एकव रत्ती।
जब रस्ता होई खाली एकदम, निकरैं केर तयारी।
हरियर बत्ती जली हो भैया, ट्रैफिक‌ लाइट निहारी।।
कहैं प्रियांशु सुना फलाने, मोर बात अब माना।
गाड़ी बाहन खूब चलाबा,नियम जो सगले जाना। 

- कवि प्रियांशु 'प्र‍िय' 

रविवार, 29 दिसंबर 2024

नई पुतउ के कहानी

नई पुतउ के कहानी


किन्हौ गोड़ पिरात है इनखर किन्हौ मूड़ पिराय‌।
किन्हौ चढ़ी बोखार है इनही,खानौ तक न खाय‌।
सास सकेलै काम घरे के,दस्स बजे तक सोमैं।
बड़ी बहाने बाज हई ईं,बोल देय त रोमैं।
मइके माहीं चारा छोलै,गोबर घाल उचामै।
ससुरे माहीं घिन लागत ही,थोभरा रोज फुलामैं।
अनटेढ़ी के बात करैं ई,मोबाइल भर गूलैं।
चमक चमक के रील बनामै,लाइक माही भूलैं।
सास बुढ़ीबा रोटी बनबै,इनही चढ़ी बेरामी।
दादू के त बात न पूछा,बहुतै हबै हरामी।
जमके लेय खूब उपरउझा,ओहिन कइती बोलै।
रंगा रहै दुलहिन के रंग मा, आगे पीछे डोलै।
रील मा भैया हंस के बोलै,अउचट थिरकै नाचैं ।
टोंक देय जो थोरकौ कोहू,कहतू हिबै कुलाचैं।
कहैं प्रियांशु अइसन दुलहिन जउने घर मा आबै‌।
मचा रहै रन जुज्झ हमेशा,मनई सुक्ख न पाबै। - कवि प्रियांशु 'प्रिय'


कविता- जीवन रोज़ बिताते जाओ

       जीवन रोज़ बिताते जाओ                                                                                भूख लगे तो सहना सीखो, सच को झूठा ...