- प्रियांशु 'प्रिय'
सतना
नवरात्रि पर बघेली कविता
सुना बताई सब गांमन मा कइसा
होय केबादा,
शासन केहीं लाभ मिलय जो लेत
हें बेउहर जादा।
सचिव साहब आवास के खातिर बोलथें
हर दार,
ओहिन काहीं लाभ मिली जे देई
बीस हजार।
आगनबाड़ी मा आबत ही लड़िकन
खातिर दरिया,
पै खाय खाय पगुराय रही हैं गइया
भंइसी छेरिया।
जघा जमीन के झगड़ा महीं चलथै
लाठी आरी,
बिन पैसा के डोलैं न अब घूंस
खांय पटवारी।
सरकारी स्कूल मा देखन खूब मिलत
हैं ज्ञान,
कुछ मास्टर अउंघाय रहे हैं
कुछ त पड़े उतान।
कवि प्रियांशु लिखिन है कविता, देख देख मनमानी,
- कवि प्रियांशु ‘प्रिय’
बघेली कविता
चारिउ कइती खोदा गड्ढा, बरस रहा है पानी,
फेरव रील बनाय रही हैं, मटक-मटक महरानी।
शासन केर व्यवस्था माहीं, मजा ईं सगला लेती हैं,
थिरक-थिरक के बीच गइल मा, रोड जाम कइ देती हैं।
हम जो बहिरे निकर गयन तो, लहटा रहै सनीचर,
मूडे से गोड़े थोपवायन, खास कांदव कीचर।
शहर के सगले गली गली मा, मिलय बीस ठे गड्ढा,
अंधियारे गोड्डाय जइथे, फाटय चड्ढी चड्ढा।
रील बनामय वालेन काहीं, अनुभव होइगा जादा,
गड्ढौ माहीं थिरक रहे हें, दीदी संघे दादा।
हम सरकार से करी निवेदन, गड्ढन का भटबाबा,
रोड मा नाचैं वालेन काहीं, परबंध कुछु लगबाबा।
- प्रियांशु 'प्रिय'
मोबा- 9981153574
बघेली कविता -
डारिन खीसा घूंस
एकठे गाँव के सुने जो होइहा, अइसा हिबय कहानी
दुई जन मिलिके खाइन पइसा, जनता मांगिस पानी।
सरपंच साहब सरकारी पइसा, लीन्हिंन सगला ठूस,
सचिव के संघे मिलिके भइया, डारिन खीसा घूंस।
टुटही फुटही छांधी वाले, सोमय परे उपास,
बंगला वाले बेउहर काहीं, जारी भा आवास।
रोड त एतनी निकही खासा, कांदव कीचर मा भरी रहै,
चउमासे के झरियारे मा, भइंसी लोटत परी रहैं।
बाँच रहा जउं चाउर गोहूं, भरिके एकठे बोरी,
बिकन के कोटेदार कहथे, रातिके होइगै चोरी।
कोउ वहां जो मुंह खोलै त, कुकुरन अस गमराय,
जेतना नहीं समाइत ओसे जादा पइसा
खांय।
होई खासा नउमत दादू, हम न लेबै नाव,
चली बताई अपनै भइया, कउन आय व गाँव।
- प्रियांशु 'प्रिय'
मोबा- 9981153574
बघेली कविता
बेरोजगार हयन
➨ प्रियांशु 'प्रिय'
मोबा. 9981153574
बघेली गीत
सबसे सुंदर, सबसे निकहा, लागय आपन गाँव हो
शहर भरे मा बाग लिहन हम, होइगा पूर उराव
हो
सबसे सुंदर सबसे निकहा, लागय आपन गाँव हो।
चुल्हबा के पोई रोटी व, केतनी निकही लागय।
अउर कनेमन चुपर के मनई, हरबी हरबी झारय।
बनय गोलहथी कढ़ी मुगउरी, अतरे दुसरे टहुआ।
जाय बगइचा टोरी आमा, बिनी हमूं एक झहुआ।
सोंध सोंध महकत ही माटी, चपकय हमरे पाँव हो...
सबसे सुंदर सबसे निकहा, लागय आपन गाँव हो....
दिखन शहर मा मरैं लाग है, आपस मा भाईचारा।
सग भाई अब सग न रहिगें, होइगा उनमा बटवारा।
बजबजात है नाली नरदा, गेरे रहय बेरामी।
एक दुसरे का चीन्हैं न अब, होइगें ऐतना नामी।
दिखन तलइया गै सुखाय अब, छूँछ परी ही नाव हो...
सबसे सुंदर सबसे निकहा, लागय आपन गाँव हो....
- प्रियांशु 'प्रिय'
मोब. 9981153574
सतना ( म. प्र. )
फलाने अरझे रहिगें
मिली जीत न हार, फलाने अरझे रहिगें,
जनता लिहिस बिचार, फलाने अरझे रहिगें।
अब होइगा बंटाधार, फलाने अरझे रहिगें।
अतरे दुसरे इनखर उनखर बइठक लागय,
कइसौ बनय सरकार, फलाने अरझे रहिगें।
ईं अपसय मा साल साल भर लपटयं जूझैं,
अब बनय रहें ब्योहार, फलाने अरझे रहिगें।
पाँच साल हम गोहरायन सब बहिर रहे हें,
तब कहयं हमीं गद्दार, फलाने अरझे रहिगें।
✏ प्रियांशु कुशवाहा ‘प्रिय’
बिकन रहे हें दारु नेता।
एक बोतल सीसी बहुँकामैं,
बोट खरीदैं चून लगामैं।
चंगु-मंगु बाटैं पर्चा,
नेताजी के खूब ही चर्चा।
चारिउ कइती डीजे बाजय,
उठिके मनई नींद से जागय।
हल्ला-गुल्ला मचा हबय हो,
देखा हमरे गाँव मा...
चीन्हैं नहीं परोसी जिनखा,
ऊँ दादू खड़े चुनाव मा...
पइसा पेलैं मा टंच रहें हें,
दादू पूर्व सरपंच रहे हें।
घर दुअरा आपन बनबाइन,
आने काहीं खूब रोबाइन।
फेरौ अबकी जोड़ैं हाथ,
तेल लगामय आधी रात।
एक दरकी जो देई साथ,
गाँव भरे के होय विकास।
छुअय मा जेखा घिनात रहें,
गिरथें उनखे पाँव मा।।
चीन्हैं नहीं परोसी जिनखा,
ऊईं दादू खड़े चुनाव मा...
✒ प्रियांशु कुशवाहा
सतना ( म.प्र.)
बघेली कविता
करिन खूब घोटाला दादू
चरित्र बहुत है काला दादू।
गनी गरीब के हींसा माहीं,
मार दिहिन ही ताला दादू।
उईं अंग्रेजी झटक रहे हें,
डार के नटई माला दादू।
तुम्हरे घरे मा होई हीटर,
हमरे इहाँ है पाला दादू।
अबै चुनाव के बेरा आई,
मरा है मनई उसाला दादू।
✒ प्रियांशु कुशवाहा 'प्रिय'
सतना (म.प्र.)
बघेली मुक्तक -
कोऊ नहींं कहिस कि फरेबी रहे हें,
पूरे गाँँव मा बांटत जलेबी रहे हें।
बंदी हें जे तीन सौ छिहत्तर के केस मा,
एक जन बताइन समाजसेवी रहे हें ।
- प्रियांशु 'प्रिय'
बघेली कविता -
जउने दिना घर मा महतारी नहीं आबय,
जानि ल्या दुअरा मा ऊजियारी नहीं आबय ।
जउन खइथे अपने पसीना के खइथे,
हमरे इहाँँ रासन सरकारी नहीं आबय ।
ठाढ़ के मोगरा टेड़ कइके देखा ,
बेसहूरन के माथे हुसियारी नहीं आबय ।
कब्जाय लिहिन उँईं सगली जाघा जमींन,
अब अर्जी लगाए मा पटवारी नहीं आबय ।
द्रौपदी के धोतिया के खीचै दुसासन,
कलजुग मा कउनव गिरधारी नहीं आबय ।
- प्रियांशु कुशवाहा 'प्रिय'
मोबा; 9981153574
बघेली कविता-
हमरे यहां आजादी ही ?
सबके सउहें नीक कही जे, ओहिन के बरबादी है।
केसे भला जाय के बोली ? हमरे इहाँ आजादी है।
मजदूरन के चुअय पसीना,तब य भुइयाँ महकत ही,
सोन चिरइया बड़े बिहन्ने, सबके दुअरा चहकत ही।
रंग बिरंगा फूल का देखा, नद्दी देखा, हरियाली,
केतना सुंदर देश हबय य, चारिउ कइती उंजियाली।
सीमा माही लगे हमय जे, उनहिंन से है देश महान,
हमरे तुम्हरे पेट के खातिर, ठंडी गर्मी सहय किसान।
चोर, डकैती छुट्टा बागैं, उनहिंन के आबादी है।
केसे भला जाय के बोली ? हमरे इहाँ आजादी है....
गाँधी जी के फोटो काहीं, चारिउ कइती देखित हे,
सत्य अहिंसा बिसर गयन है, यहै मनै मन सोचित हे।
देश के खातिर चढ़िगें फाँसी,सुन्यन भगत के अमर कहानी,
चंद्रशेखर आजाद छाड़िगें,भुइयाँ माहीं अमिट निशानी।
कमलादेवी, लक्ष्मीबाई , अउर सरोजिनी, झलकारी,
माटी खातिर जान दइ दिहिन, बहिनी,बिटिया,महतारी।
चार ठे माला पहिर के भइलो,बाँट दिहिन परसादी है।
केसे भला जाय के बोली ? हमरे इहाँ आजादी है...
भाईचारा,साहुत बिरबा,जड़ से उईं निरबार दिहिन,
जाति धरम का आँगे कइके, मनइन काहीं मार दिहिन।
निबला काहीं मिलै न रोटी, फुटहे घर मा सोबत है,
निकहें दिन कइसा के अइहैं, यहै सोच के रोबत है।
गाड़ी, मोटर, बंगला वाले, अति गरीबी झेलत हें,
सबै योजनन के पइसा का, उईं साइड से पेलत हें।
लूट के पइसा भागें निधड़क, उनहिंन के अब चाँदी है।
केसे भला जाय के बोली ? हमरे इहाँ आजादी है...
लाड़ली बहना योजना
मध्यप्रदेश शासन की जनकल्याणकारी योजना "लाड़ली बहना योजना" पर आधारित बघेली लोकगीत सुनने के लिए क्लिक करें.............
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लाड़ली बहना योजना पर आधारित बघेली लोकगीत
बघेली कविता...
आज दीपावली है। चारों ओर दिया जगमगा रहे हैं, पटाखों की आवाज़ से पूरा वातावरण गुंजायमान हो रहा है। परंतु अंतिम छोर पर खड़ा एक वह गरीब भी है जिसके भाग्य में न तो कोई दिन है और न ही कोई त्योहार। उसके अपने सभी खेत बिक गए हैं और अपने परिवार को दो जून की रोटी देने के लिए दिनभर दूसरों के खेतों में मज़दूरी भी करनी पड़ती है। अपने परिवार के सदस्यों के चेहरे पर मुस्कान देखकर वह सभी त्योहार मना लेता है। तो आज आपको उसी गलियारे से निकली हुई एक #बघेली_कविता से जोड़ता हूं, जिसके रचयिता हैं महाकवि सैफुद्दीन सिद्दीकी "सैफू" जी।
( गरीब केर देवारी )
मन के बात मनै मा रहिगै, होइगै आज देवारी।
बातिउ भर का तेल न घरमा, दिया कहाँ ते बारी।
खेत पात सब गहन धरे हैं, असमौं न मुकतायन,
बनी मजूरी कइके कइसव, सबके पेट चलायेन।
अढ़िऔ तबा बिकन डारेन सब, दउर परी महंगाई।
पर के फटही बन्डी पहिरेब, कइसे नई सियाई।।
लड़िकौ सार गुडन्ता खेलै, गोरूआ नहीं चराबै।
कही पढ़ैं क तो भिन्सारेन, उठके मूड हलावै।
रिन उधार बाढ़ी टोला मा, कोउ नहीं देबइया।
खाँय भरे का है मुसलेहड़ी, हमहिन एक कमइया।।
दिन भर ओड़ा टोरी आपन, तब पइला भर पाई।
माठा भगर मसोकी सबजन, कइसव पेट चलाई।।
तिथ त्योहार होय सबहिन के, मुलुर मुलुर हम देखी।
केतना केखर रिन लागित हन, आँखी मूँद सरेखी।।
मनई के घर जलम पायके, मनई नहीं कहायेन।
डिठमन दिया देवारिउ कबहूँ, नीक अन्न न खायेन।।
उमिर बीतगै भरम जाल मा, भटकत भटकत भाई।
तुहिन बताबा केखे माथे, अब हम दिया जराई।।
सोउब रहा तो दादा लइगा, अब ओलरब भर रहिगा।
मँहगाई मा सबै सुखउटा, पानी होइके बहिगा।।
कउन लच्छमी धरी लाग ही, जेखर करी पुजाई।
कउने फुटहा घर मा ओखर, मूरत हम बइठाई।।
गाँवौं के कुछ मनई अइहैं, जो कजात बोलवाई।
केतनी हेटी होई गय जो हम, बीड़िउ नहीं पिआई।।
नरिअर रोट बतासौ चाही, कमरा दरी बिछाई।
है तो हियाँ फटहिबै कथरी, छूँछ खलीसा भाई।।
करम राम बेड़ना ओढ़काये, कुलकुतिया है मनमा।
आव लच्छमी तहूँ बइठ जा, पइरा के दसनन मा।।
झूरै झार पुजाई लइले, तोर हबै सब जाना।
गोड़ टोर के बइठ करथना, कइ लीन्हें मनमाना।।
बड़े बड़े मनइन के नेरे, तैं अबतक पछियाने।
उनहिन के घरमा बिराज के, खूब मिठाई छाने।।
अब महुआ के लाटौ लइले, फुटही देख मड़इया।
दालिद केर पहाड़ देखले, चढ़ले तहूँ चढ़इया।।
मन के दिया जराय देब हम, मानिउ लिहे देवारी।
तोर गोड़ धोमैं के खातिर, गघरिन आँसू डारी।।
कहु तो फार करेजा आपन, तोही लाय देखाई।
य जिउ के माला बनाय के, तोहिन का पहिराई।।
गनिउ गरीबन केर पुजाई, मान लिहे महरानी।
रच्छा कारी करै सवत्तर, तोहिन का हम जानी।।
घुरबौ भर के बेरा लउटै, कबहूँ व दिन देखब।
महा लच्छमी केर पुजाई, कइके रकम सरेखब।।
अँतरी खोंतरी मा घिउ भरके, लाखन दिया जराउब।
बूँदी के लेड़ुआ बँटाय के , हमू उराव मनाउब।।
इहै बिसूरत झिलगी खटिया, गा टेपुआय बिचारा।।
"सैफू" कहैं देवारी आई, दिया सबै जन बारा।।
~ सैफुद्दीन सिद्दीक़ी "सैफू"
बघेली कविता अपने विंध्य के गांव भाई चारा साहुत बिरबा, अपनापन के भाव। केतने सुंदर केतने निकहे अपने विंध्य के गांव। छाधी खपड़ा माटी के घर,सुं...