शनिवार, 5 अक्टूबर 2024

अपने विंध्य के गांव

बघेली कविता 

अपने विंध्य के गांव


भाई चारा साहुत बिरबा, अपनापन के भाव।
केतने सुंदर केतने निकहे अपने विंध्य के गांव।

छाधी खपड़ा माटी के घर,सुंदर महल अटारी।
घास फूस के बनी मडइया,माटी केर बखारी।

घर मा मिलिहै सूपा छउआ, टोपरी,दोहनी गघरी ।
चली बहुरिया कलसा लइके,मूड़े मा धर गोन्हरी।

कक्कू मिलिहै अपना काहीं लै हाथे पइनारी।
लंबी मूछ मुड़ेठी बाधे,इनखर गजब चिन्हारी।

छोट बड़े के रहै कायदा आपस के ब्युहार।
हितुआरस के भाव जगामै,इहां केर तेउहार।

जून जमाना पलटी मारिस,बदलै लागे गांव।
कला संस्कृति गीत बिसरिगे बिसरै लागे भाव।

बिसरें खेलकूद सब दादू, खेलैं दिनभर पबजी।
चाउमीन पिज्जा के आगे, सोहाय न रोटी सबजी।

कहै प्रियांशु कविता माही कहा पुरनिया रीत।
बन्ना बन्नी कजरी हिदुली आल्हा बाले गीत।

- प्रियांशु 'प्रिय' 
सतना 

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