तब की होली और अब की होली
होली देश के प्रमुख त्योहारों में से एक है। यह रंगों की
फुहार के साथ प्रेम बरसाने का त्योहार है। समूचा देश तो इसे बड़े हर्षोल्लास के
साथ मनाता ही है परंतु अपने बघेलखंड में आज भी इसे अपने अद्भुत ढंग और बड़े उत्साह
के साथ मनाने के लिए जाना जाता है। पहले जैसे तो नहीं पर आज भी हमारे गाँव के कुछ
लोग इसे अपनी पुरानी परंपराओं के साथ मनाते हैं, जो देखते ही बनता है।
होली के कुछ दिन पूर्व ही बच्चों में इस त्योहार का उत्साह पैदा हो जाता है और
वे इस दिन का बड़ी बेसब्री से इंतज़ार करते हैं। चूंकि भारतीय परंपराओं में होली
का त्योहार दो दिन का निर्धारित किया गया है। प्रथम दिवस होलिका दहन और उसके अगले
दिन फगुआ। अब समय बदल रहा है और त्योहारों को उत्सव के साथ मनाने की वह धूम
क्षीण होती जा रही है। हमारे पूर्वज बताते हैं कि अब यह त्योहार उतनी धूम-धाम से
नहीं मनाया जाता। जितना उनके समय में था।
होलिका दहन के 15 से 20 दिन पूर्व ही हमारे गाँव के लड़के
तमाम लकड़ी आदि इकट्ठा करना शुरू कर दिया करते थे और इस रोज की शाम आसपास के तमाम
लोग इकट्ठा होकर इसमें शामिल होते थे। पूर्वजों के अनुसार यह दिन बहुत महत्वपूर्ण
माना जाता है। उनका कहना है कि यह बुराई में अच्छाई की जीत का पर्व है। होलिका
दहन के वक्त उसके चारों ओर घूमकर लोग अपने हाथों में ‘राई, नमक और चोकर’ से
नज़र उतारते हैं। मान्यता है कि अगर हमारे भीतर किसी बुरी शक्ति ने प्रवेश कर
लिया है तो ऐसा करने से वह बाहर हो जाएगी। होलिका दहन का यह पर्व गाँवों में आज भी
उतने ही हर्षोल्लास के साथ मनाया जाता है।
इसके अगले दिन ही फगुआ आता है। जैसे हमारे बघेलखंड में अनेक
त्योहार और पर्वों के लिए विभिन्न लोकगीत गाए जाते हैं, उसी तरह होली के
दिन भी फगुआ गाने परंपरा है। जिसमें पुरूषों और महिलाओं के अलग अलग फगुआ गीत गाए
जाते हैं। महिलाओं द्वारा गाए जाने वाले कई फगुआ गीतों में परदेसी प्रियतम की
याद छिपी रहती है। इस संदर्भ में एक फगुआ गीत की पंक्तियां देखिए -
‘‘तोरी सूरत
लिखी है, नगीना मा,
पिया अउबै तू
कउने महीना मा,
चार महीना
गरमी के आए, टुप- टुप चुअए पसीना मा..
पिया अउबै तू
कउने........ ’’
इस दिन लोग ढोलक और नगरिया लेकर इकट्ठा होते हैं और फगुआ
गाते हैं। पहले-पहल गाँवों में फगुआ गाने और सुनने वालों की बहुत भीड़ इकट्ठा होती
थी परंतु अब यह नहीं देखने को मिलता। डी.जे. के कोलाहल के बीच नगरिया, झाँझ आदि की मधुर
धुन विलुप्त होती जा रही है। पुरूषों द्वारा बघेलखंड में गाए जाने वाले फगुआ गीत
की कुछ पंक्तियां देखिए –
‘‘को खेलै लाल
ऐसी होली, को खेलै लाल ऐसी होली,
कोउ पहिरै पाग
पितंबर, कोउ गुदड़ी रंग चोली।
कउने शहर मा
खेला मचा है, कउने के परिगै सिर डोली।
जनक शहर मा खेला
मचा है, रामौ के परिगै सिर डोली।’’
फगुआ गाने के साथ-साथ इस दिन तमाम द्वेष, घृणा मिटाकर रंग, अबीर, गुलाल से मिश्रित
उत्साह और प्रसन्नता को हम सबपर छिड़कते हैं और होली मनाते हैं। नन्हें बच्चों
में यह उत्साह तो आज भी बना रहता है। परंतु मोबाइल आदि आ जाने से यह त्योहार
स्टेटस में बधाई प्रेषित करने तक होता जा रहा है। होली पर एक उक्ति तो प्रसिद्ध
ही है ‘बुरा न मानो, होली है’। इसीलिए इस दिन हास-परिहास करते हुए
देवर-भौजाई और सरहज-नंदोई का होली खेलना भी खूब जन-प्रसिद्ध है। जिसमें भौजाई
द्वारा देवर को मिठाई और बतासों से बनी माला पहनाई जाती थी। संभवत: अब कम ही देखने
को मिलता है परंतु एक ज़माने में ससुराल पक्ष वाले अपने दामाद को होली के दिन आमंत्रित
करते थे और उन्हें खूब रंग लगाते थे। इस दिन जब गाँव और पड़ोस के लोग हमारे घर
गुलाल और अबीर लगाने आते हैं तब उन्हें हम बघेलखंड के विविध प्रकार के व्यंजन
जैसे कुसुली (गुझिया),पपरी, आदि भी खिलाकर खूब स्वागत करते हैं। ऐसी अनेक
अविस्मरणीय यादें हैं जो होली से जुड़ी हैं। समय बदलते बदलते सभी त्योहारों को
मनाने का उत्साह भी अब कम होता जा रहा है। परंतु आज भी कुछ लोग हमारी लोकपरंपराओं
और संस्कृति को जीवंत रखे हुए हैं।
- कवि प्रियांशु प्रिय