शुक्रवार, 23 अप्रैल 2021

राष्ट्रीय चेतना के अमर स्वर महाकवि दिनकर - ( प्रियांशु कुशवाहा 'प्रिय')

राष्ट्रीय चेतना के अमर स्वर महाकवि दिनकर

©® प्रियांशु कुशवाहा “ प्रिय ”

आधुनिक युग में आज भी अगर ओज के अग्रणी कवियों की बात की जाए तो सर्वोच्च स्थान पर राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर ही उपस्थित होते हैं। राष्ट्रीयता को मुखर करने वाले अमर स्वर और भारतीय संस्कृति के शाश्वत गायक के रूप में भी दिनकर को जाना जाता है। भारत के लब्धप्रतिष्ठित कवि रामधारी सिंह दिनकर का जन्म 23 सितंबर 1908 को बिहार के बेंगुसराय जिले के सेमरियाँ गाँव में हुआ। राष्ट्रीय चेतना की अप्रतिम अलख बचपन से ही दिनकर के भीतर झलकती थी। दिनकर का शुरूआती जीवन बेहद ही संघर्षपूर्ण रहा। पिता कृषक थे और बड़े भाई बसंत भी पिता के साथ कृषि में साहचर्य कार्य किया करते थे। एक लंबी बीमारी की वजह से उनके पिता की मृत्यु हो गई। बचपन में ही दिनकर के सर से पिता का साया टूट जाने के कारण घर पर मानों आसमान ही टूट पड़ा। ऐसी कठिन और प्रतिकूल परिस्थिति में भी उनके बड़े भाई ने उन्हें पढ़ने के लिए कहाँ और वे स्वयं कृषि कार्य में लगे रहे। दिनकर की शिक्षा-दीक्षा उनके बड़े भाई और उनकी माँ ने ही की। बचपन से ही पढ़ाई में निपुण दिनकर रचनाशीलता और सर्जनात्मकता में भी प्रतिभा संपन्न थे। दिनकर ने प्राथमिक की पढ़ाई गाँव के ही प्राइमरी स्कूल में पूरी की। दिनकर ने पटना विश्वविद्यालय से इतिहास राजनीति विज्ञान में बी.ए. किया। उन दिनों देशभर में आजादी के लिए कई आंदोलन भी चल रहे थे। इन सबका उनके लेखन में खासा प्रभाव पड़ा। गुजरात के बारदोली सत्याग्रह के बाद दिनकर ने 20 वर्ष की उम्र में 10 गीत लिखे। सारे के सारे गीत विंध्यप्रदेश के रीवा से छपने वाली पत्रिका “छात्र सहोदर” में प्रकाशित हुए। स्नातक की परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद उन्होंने एक विद्यालय में अध्यापन कार्य भी किया। 55 रूपए मासिक वेतन के साथ दिनकर ने हेडमास्टर के पद पर एक हाईस्कूल में नौकरी की। मुजफ्फरपुर में हिंदी विभाग के विभागाध्यक्ष भी रहे। विभिन्न पदों में कार्य करते हुए दिनकर का लेखन जारी रहा। 1935 में उनका पहला काव्य संग्रह रेणुका प्रकाशित हुआ। जिसमें हिमालय, कविता की पुकार, पाटिलपुत्र की गंगा जैसी अनेक लोकप्रिय कविताएँ शामिल हैं। सरकारी पद में कार्यरत रहते हुए भी दिनकर ने अपने लेखन की राष्ट्रीय चेतना और काव्यधर्मिता को जीवित रखा। सरकार की तमाम अव्यवस्थाओं पर प्रश्न खड़ा करती हुई उन्होंने कई कविताएँ लिखी।

"सदियों की ठंडी-बुझी राख सुगबुगा उठीं,

मिट्टी सोने का ताज पहन इठलाती है,

सिंहासन खाली करो कि जनता आती है। "

उनपर सरकार विरोधी कविताएँ लिखने का आरोप भी लगा और इस कारण से भी उनके चार साल में 22 तबादले हुए। 1942 से 1945 के बीच उन्होंने युद्ध प्रचार विभाग में नौकरी भी की। सत्य के लिए हमेशा खड़े रहने वाले दिनकर अपनी प्रबल इच्छाशक्ति से राष्ट्र के प्रेम में अपनी कलम से अंधेरों को दूर कर रोशनाई फैलाते रहे। इसी बीच उनके कई काव्य संग्रह प्रकाशित हुए। हुंकार (1939) , रसवंती ( 1940), द्वंदगीत(1940) आदि।


यूँ तो दिनकर राष्ट्रीय चेतना के अमर स्वरों में गिने ही जाते हैं और उनकी सभी कृतियां साहित्य जगत में अपना विशेष स्थान रखती हैं। परंतु 1949 में प्रकाशित प्रबंध काव्य "कुरूक्षेत्र" और 1952 में प्रकाशित "रश्मिरथी" ने साहित्य और कविता के पाठकों के हृदय में एक अलग ही स्थान स्थापित किया।अपने प्रबंध काव्य कुरूक्षेत्र में दिनकर ने महाभारत में युद्ध की पृष्ठभूमि को केंद्र में रखकर रचनाएँ लिखी। इसमें युद्ध के भयावह दृश्य के साथ महाभारत काल में युधिष्ठिर और भीष्म पितामह के संवादों को समेट कर प्रस्तुत किया गया है। दिनकर के अनुसार केंद्रीय समस्या युद्ध है और जबतक मनुष्य मनुष्य के बीच विषमता है और एकरूपता का अभाव है तबतक युद्ध टालना असंभव है। इसे कुरूक्षेत्र में दिनकर लिखते हैं कि- 


"जबतक मनुज-मनुज का यह,

सुखभाग नहीं सम होगा।

शमित न होगा कोलाहल,

संघर्ष नहीं कम होगा। "


कुरूक्षेत्र की रचना कर लेने के बाद दिनकर ने महाभारत की पृष्ठभूमि से ही एक और अमर कृति की रचना की। कवि मैथिलीशरण गुप्त जी से प्रेरणा लेकर लिखी गई "रश्मिरथी" आज भी दिनकर के पाठकों को कंठस्थ है। राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त ने ज्यादातर उन चरित्रों को केंद्र में रखकर रचनाएँ लिखीं जो कहीं-न-कहीं उपेक्षा का शिकार हुए। उदाहरण के तौर पर गुप्त जी द्वारा रचित महाकाव्य "साकेत" जो कि रामायण में लक्ष्मण की पत्नी उर्मिला को केंद्र में रखकर लिखा गया है। ठीक इसी परंपरा को जीवित रखते हुए दिनकर जी ने महाभारत के पात्र कर्ण को केंद्र में रखकर रश्मिरथी की रचना की। कहीं न कहीं कर्ण भी साहित्य और सामाजिक रूप से उपेक्षित पात्र रहा। दिनकर की रश्मिरथी में एक आवेग और आवेश के साथ-साथ राष्ट्रीय चेतना का भाव भी झलकता है। कुरूक्षेत्र की रचना कर लेने के बाद दिनकर ने रश्मिरथी का लेखन शुरू किया और वे स्वयं कहते हैं कि- " मुझमें यह भाव जगा कि मैं कोई ऐसा काव्य भी लिखूँ जिसमें केवल विचारोत्तेजकता ही नहीं, कुछ कथा संवाद और वर्णन का भी माहात्म्य हो "। इस प्रबंध काव्य में दिनकर ने कर्ण की चारित्रिक विशेषताओं के साथ साथ संवेदनाओं को भी रखा है। महाभारत काल की समस्याओं को आधुनिक दृष्टि में समाहित करके पाठकों के समक्ष रखना साथ ही मुख्य समस्याएँ जो कि योग्यता और गुणों को महत्त्व ना देकर वंश और जाति को महत्व दे रही थी, उनका भी इस कृति में वर्णन किया गया है। दिनकर लिखते हैं कि-


" ऊँच नीच का भेद न माने वही श्रेष्ठ ज्ञानी है"

"दया धर्म जिसमें हो, सबसे वही पूज्य प्राणी है"

"क्षत्रिय वही भरी हो जिसमें निर्भयता की आग"

"सबसे श्रेष्ठ वही ब्राह्मण है,हो जिसमें तप त्याग"


कर्ण को विषय बनाकर जाति व्यवस्था के खिलाफ और दलितों का समर्थन करती हुई दलित चेतना की पंक्तियां भी दिनकर की इस कृति में पढ़ने को मिलती है। कर्ण की चारित्रिक विशेषता को उद्घाटित करते हुए दिनकर ने रश्मिरथी में यह भी बताया है कि कर्ण का चरित्र पौरूष और स्वाभिमान से युक्त था। जो किसी भी शक्ति से दबने वाला नहीं था। वह अपने शरीर से समरशील योद्धा था। जिसका व्यक्तित्व मन और हृदय से भावुक तो था ही साथ ही उसका स्वभाव दानवीर प्रवृत्ति का था। कर्ण को महाभारत में दानवीर कर्ण के नाम से भी जाना जाता है। कर्ण के चरित्र की विशेषता बताते हुए दिनकर कहते हैं - 


" तन के समरशूर, मन से भावुक, स्वभाव से दानी"

" जाति गोत्र का नहीं, शील का,पौरूष का अभिमानी। "


दिनकर की ऐसी अनेक अद्वितीय काव्य कृतियाँ प्रकाशित हुई और देश ही नहीं अपितु विश्वभर में अपनी लोकप्रियता का पताका फहराया। दिनकर को कई भाषाओं का ज्ञान भी था और भारतीय संस्कृति के गहन चिंतन के बाद उन्होंने 1956 में प्रकाशित 'संस्कृति के चार अध्याय' की रचना की। जिसकी भूमिका पूर्व प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू ने लिखी। इस कृति के लिए उन्हें साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया। शृंगार की कविताओं से लबरेज "रसवंती'' और "उर्वशी" ( इस कृति के लिए दिनकर जी को ज्ञानपीठ पुरस्कार दिया गया ) के साथ साथ चीनी आक्रमण के प्रतिशोध में लिखा गया खंडकाव्य "परशुराम की प्रतीक्षा" आज भी साहित्य के पाठकों को आज भी प्रिय है। दिनकर की गद्य विधा में भी कई कृतियाँ प्रकाशित हुईं। जब जब देश में सरकारी व्यवस्था मनुष्यता को तोड़ने का प्रयास करेगी तब तब दिनकर की ओजस्वी कविताएँ उनके मुँह पर करारा प्रहार करेंगी। आज महाकवि रामधारी सिंह दिनकर जी की पुण्यतिथि पर सादर नमन्।


©® प्रियांशु कुशवाहा 'प्रिय'

   

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