शनिवार, 14 नवंबर 2020

बघेली कविता.. ( गरीब केर देवारी ) ~ [ सैफुद्दीन सिद्दीकी "सैफू" जी ]

 

बघेली कविता...




आज दीपावली है। चारों ओर दिया जगमगा रहे हैं, पटाखों की आवाज़ से पूरा वातावरण गुंजायमान हो रहा है। परंतु अंतिम छोर पर खड़ा एक वह गरीब भी है जिसके भाग्य में न तो कोई दिन है और न ही कोई त्योहार। उसके अपने सभी खेत बिक गए हैं और अपने परिवार को दो जून की रोटी देने के लिए दिनभर दूसरों के खेतों में मज़दूरी भी करनी पड़ती है। अपने परिवार के सदस्यों के चेहरे पर मुस्कान देखकर वह सभी त्योहार मना लेता है। तो आज आपको उसी गलियारे से निकली हुई एक #बघेली_कविता से जोड़ता हूं, जिसके रचयिता हैं महाकवि सैफुद्दीन सिद्दीकी "सैफू" जी



( गरीब केर देवारी )


मन के बात मनै मा रहिगै, होइगै आज देवारी।

बातिउ भर का तेल न घरमा, दिया कहाँ ते बारी।


खेत पात सब गहन धरे हैं, असमौं न मुकतायन,

बनी मजूरी कइके कइसव, सबके पेट चलायेन।


अढ़िऔ तबा बिकन डारेन सब, दउर परी महंगाई।

पर के फटही बन्डी पहिरेब, कइसे नई सियाई।।


लड़िकौ सार गुडन्ता खेलै, गोरूआ नहीं चराबै।

कही पढ़ैं क तो भिन्सारेन, उठके मूड हलावै।


रिन उधार बाढ़ी टोला मा, कोउ नहीं देबइया।

खाँय भरे का है मुसलेहड़ी, हमहिन एक कमइया।।


दिन भर ओड़ा टोरी आपन, तब पइला भर पाई।

माठा भगर मसोकी सबजन, कइसव पेट चलाई।।


तिथ त्योहार होय सबहिन के, मुलुर मुलुर हम देखी।

केतना केखर रिन लागित हन, आँखी मूँद सरेखी।।


मनई के घर जलम पायके, मनई नहीं कहायेन।

डिठमन दिया देवारिउ कबहूँ, नीक अन्न न खायेन।।


उमिर बीतगै भरम जाल मा, भटकत भटकत भाई।

तुहिन बताबा केखे माथे, अब हम दिया जराई।।


सोउब रहा तो दादा लइगा, अब ओलरब भर रहिगा।

मँहगाई मा सबै सुखउटा, पानी होइके बहिगा।।


कउन लच्छमी धरी लाग ही, जेखर करी पुजाई।

कउने फुटहा घर मा ओखर, मूरत हम बइठाई।।


गाँवौं के कुछ मनई अइहैं, जो कजात बोलवाई।

केतनी हेटी होई गय जो हम, बीड़िउ नहीं पिआई।।


नरिअर रोट बतासौ चाही, कमरा दरी बिछाई।

है तो हियाँ फटहिबै कथरी, छूँछ खलीसा भाई।।


करम राम बेड़ना ओढ़काये, कुलकुतिया है मनमा।

आव लच्छमी तहूँ बइठ जा, पइरा के दसनन मा।।


झूरै झार पुजाई लइले, तोर हबै सब जाना।

गोड़ टोर के बइठ करथना, कइ लीन्हें मनमाना।।


बड़े बड़े मनइन के नेरे, तैं अबतक पछियाने।

उनहिन के घरमा बिराज के, खूब मिठाई छाने।।


अब महुआ के लाटौ लइले, फुटही देख मड़इया।

दालिद केर पहाड़ देखले, चढ़ले तहूँ चढ़इया।।


मन के दिया जराय देब हम, मानिउ लिहे देवारी।

तोर गोड़ धोमैं के खातिर, गघरिन आँसू डारी।।


कहु तो फार करेजा आपन, तोही लाय देखाई।

य जिउ के माला बनाय के, तोहिन का पहिराई।।


गनिउ गरीबन केर पुजाई, मान लिहे महरानी।

रच्छा कारी करै सवत्तर, तोहिन का हम जानी।।


घुरबौ भर के बेरा लउटै, कबहूँ व दिन देखब।

महा लच्छमी केर पुजाई, कइके रकम सरेखब।।


अँतरी खोंतरी मा घिउ भरके, लाखन दिया जराउब।

बूँदी के लेड़ुआ बँटाय के , हमू उराव मनाउब।।


इहै बिसूरत झिलगी खटिया, गा टेपुआय बिचारा।।

"सैफू" कहैं देवारी आई, दिया सबै जन बारा।।


~ सैफुद्दीन सिद्दीक़ी "सैफू"

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