गुरुवार, 12 सितंबर 2024

बघेली कविता - 'बेरोजगार हयन'

                                                                 बघेली कविता
 
                                                         बेरोजगार हयन


दिनभर माहीं दुक्ख का अपने‌,‌ रोइत कइयक‌ दार हयन।
दादू हम बेरोजगार हयन।

चार पॉंच ठे डिगरी ल‌इके, यहां‌‌ वहां हम बागित हे।
चिंता माहीं दिन न‌ सोई, रात रात भर जागित हे।
आस परोस के मन‌ई सोचैं, कउन पढ़ाई करे हबय।
बाबा के मुहूं निहारय न,‌छाती मा कोदौ दरे हबय।
दोस्त यार‌‌, हेली-मेली‌,‌ सुध करैं नहीं भूल्यो बिसरे।
एक रहा जमाना जब सगले, फोन करैं अतरे दुसरे।
लइके कागज ऐखे ओखे, लगाइत खूब गोहार हयन।
दादू हम बेरोजगार हयन।

बाबा बोलय करा किसानी, मिलै कहौं रोजगार‌ नहीं।
अब खेती कइसा होई हमसे, जिउ टोरैं के तार‌‌ नहीं।
कुछ जने कहथे बाबा से, एकठे दुकान खोलबाय द्या।
ओहिन मा बइठाबा ऐखा, निरमा, साबुन‌‌ रखबाय द्या।
धंधौ खोलय खातिर भैया, पइसा फसमय के तार नहीं।
कर्जा एतना काढ़ लिहन कि, मॉंगे मिलै उधार नहीं।
खीसा मा रूपिया नहीं एक, रोइत असुअन के‌‌ धार‌ हयन।
दादू हम बेरोजगार हयन।

रिस्तदार अउ पट्टिदार सब,बाबा का फोन‌ लगाबत हें।
लड़िका तुम्हार काजे का है,बिटिया‌ रोज बताबत हें।
बाबा या कहिके रखैं फोन,का तुमहीं कुछु देखाय नहीं।
केखर बिटिया अई भला,जब लड़िका मोर कमाय नहीं।
सब देख देख चउआन हयन, किस्मत कइ‌ निहारिथे।
करम जउन लिखबा आयन है, कागज मा वहै‌ उतारिथे।
खासा संघर्ष दिखन जीवन मा, अउ झेलैं का तइयार हयन।
दादू हम बेरोजगार हयन।

प्रि‍यांशु 'प्रिय'
मोबा. 9981153574


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