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शनिवार, 13 मार्च 2021

कहानी - ( दयाराम का दुख ) - प्रियांशु कुशवाहा "प्रिय"

कहानी__

( दयाराम का दुख )

दयाराम काका को घर आते आते बड़ी देर हो गई थी। कमली काकी द्वार पर खड़े-खड़े काफ़ी देर से काका की गली देख रही थी। 

" बड़ी देर कर थी आज " कमली काकी ने कहा।

" अरे ! क्या बताएँ ? अपने खेत का चारा तो चरवाहे ही ले गए, इसीलिए आज काफ़ी दूर तक जाना पड़ा "

घर में दो गायें थी उनके लिए हर रोज चारा लेने काका को ही जाना पड़ता था। 

" चलो जाओ हाथ-पाँव धो लो, और खाना खा लो "

ईश्वर की कृपा से काका के पास खूब ज़मीन थी। ज्यादा पढ़े लिखे नहीं थे लेकिन अगर गाँव की चौपाल में बैठ जाते थे तो बड़े से बड़े विषयों पर घंटों तक संवाद चलता रहता था।

काका के पास ज़मीन और पैसा तो खूब था ही उसके साथ साथ पूरे गाँव में उनका लोगों के प्रति प्रेम भरा व्यवहार भी उन्हें सबसे अलग बनाता था। अक्सर कई बार देखा जाता है कि खूब धन-दौलत वाले आदमी के भीतर अहंकार जन्म लेने लगता है। कई बार तो लोगों के प्रति घृणा और ईर्ष्या भी आ जाती है। लेकिन काका ऐसे बिल्कुल न थे। अपने घर का पूरा काम वो स्वयं ही करते थे। किसी भी तरह के काम के लिए काका को कभी किसी को परेशान करने की आदत न थी।

रोज़ की ही तरह दयाराम काका तड़के 5 बजे उठकर गायों के लिए चारा लेने निकल गए। उधर कमली काकी भी अपने तीनों बच्चों को पढ़ने के लिए उठाने लगी। काका हमेशा कहते थे कि सुबह का पढ़ा कभी नहीं भूलता। दोनों की इच्छा थी कि उनके बच्चे भी बड़े होकर अफ़सर बने।

दुर्भाग्य से तीनों का मन पढ़ाई में बिल्कुल भी न लगता था। बड़ा बेटा सुरेश घर से स्कूल के लिए निकलता तो था लेकिन रास्ते में उसके कुछ दोस्त मिल जाते तो वहीं से मेला घूमने निकल जाता य कभी कभी वहीं सबके साथ मिलकर कंचे खेलने लगता। छोटा बेटा मुन्ना भी सुरेश से कम नहीं था। वो अपने स्कूल में सबसे ज्यादा अनुशासनहीन विद्यार्थियों में जाना जाता था। दयाराम काका के पास उसे लेकर आए दिन स्कूल से शिकायतें आती रहती थी। दोनों बेटों की इन आदतों से काका खूब परेशान रहा करते थे। वो दोनों न तो पढ़ाई करते थे और न ही काका के साथ खेतीबाड़ी में हाथ बटाते थे। रानी सबसे छोटी और इकलौती बेटी थी। घर की लाडली बेटी तो थी ही साथ ही काका और काकी उसकी हर एक मनचाही चीज़ उसे लाकर देते थे। दोनों की इच्छा थी कि रानी भी खूब पढ़ लिख ले जिससे उसका बड़े घर में बियाह हो जाए। लेकिन रानी भी अपनी सखियों के साथ खेल में ही डूबी रहती थी। पढ़ाई से ज्यादा रानी का मन घर की साज-सज्जा, चित्र बनाना, मेंहदी इत्यादि में खूब लगता था। रानी अगर सखियों के साथ न दिखे तो काकी समझ जाती थी कि वो कहीं और नहीं बस भीतर बैठकर कोई न कोई चित्र ही बना रही होगी। सुरेश और मुन्ना काका से बहुत डरते थे। उनकी डाँट भर से दोनों रोने लगते थे। दिन भर दोनों भाई भले ही कहीं भी घूमते रहें लेकिन शाम 5 बजते घर आ ही जाते थे। 

उस दिन शाम के 7 बज चुके थे। काका अभी चारा लेकर घर न आए थे। काकी को हल्का बुखार था। रानी माथे पे रूमाल की पट्टी रखकर गरम देह को ठंडा कर रही थी। सुरेश झूरन बाई को बुलाने गया था। झूरन बाई पूरे गाँव में झाड़-फूक के लिए जानी जाती थी। उन दिनों गाँवों में डाक्टरी परामर्श झूरन बाई के कहने पर ही लिया जाता था। 

थोड़ी देर बाद झूरन बाई आयी और अपने मंत्र-तंत्र से कमली का इलाज़ करने लगी। 

" जा एक नारियल और तीन अगरबत्ती ले आ " झूरन ने अपनी साड़ी के कोने में बंधे पैसे निकालकर सुरेश को देते हुए कहा। 

रानी कमली काकी के माथे पर लगातार ठंडे पानी की पट्टी कर रही थी। उससे किसी भी तरह का कोई आराम नहीं हो रहा था। काकी की तबीयत धीरे धीरे और नाजुक होती जा रही थी। सुरेश नारियल और अगरबत्ती लेकर आया। ठीक उसी वक्त दयाराम काका भी चारा लेकर घर आए थे। 

काका झाड़फूक इत्यादि पर ज़रा भी भरोसा न करते थे। लेकिन फिर भी गाँव वालों के कहने पर वो कुछ बोल न सके और न चाहते हुए भी उन्हें झूरन बाई के तमाम तरह के अंधविश्ववास में आकर तंत्र-मंत्र से ही ठीक होने तक रूकना पड़ा। अंततः झूरन बाई के तमाम तरह के प्रयासों के बाद भी काकी को आराम न हुआ और सभी ने तय किया कि अब शहर चलना होगा और वहीं इलाज़ करवाना पड़ेगा। काकी की तबीयत हर दो तीन साल में ऐसे ही ख़राब हो जाया करती थी उसका इलाज़ शहर के अस्पताल में ही होता था। काकी को शहर के अस्पताल लाया गया और यहाँ न जाने कितनी जाचें हुई। काकी की दवाई में दयाराम को हर दो तीन साल में अपनी ज़मीन का कुछ हिस्सा बेचना ही पड़ जाता था। आखिरकार ज़मीन बेचकर ही सही लेकिन काकी का इलाज़ शहर के अस्पताल में तो हुआ और वो पूरी तरह स्वस्थ भी हो गई।

धीरे धीरे दोनों बेटे और छोटी बेटी तीनों बड़े हो गए। आठवीं - नवमीं तक की स्कूली शिक्षा पाकर अक्षर ज्ञान तो हो ही गया। काकी की तबीयत भी सही न रहती थी। काका की उम्र भी धीरे धीरे बुढ़ापे की ओर बढ़ रही थी। उन्हें लगता था किसी तरह रानी का बियाह कर दें तो चिंतामुक्त हो जाएँ। कुछ सालों बाद सुरेश और मुन्ना को भी घर गृहस्थी में बाँध देंगे।

रानी ज्यादा पढ़ी लिखी न थी इसीलिए लड़का भी ज्यादा पढ़ा लिखा न मिलता। काका कई ज़गह रिश्ते देखकर आए थे। उन्हें राजाराम का लड़का पसंद आया था। शहर में रहकर किसी कारखानें में नौकरी करता था। उन दिनों गाँवों में ये माना जाता था कि शहर में नौकरी करने वाला लड़का किसी बड़े आदमी के जैसा होता है, गाँवों में क्या है ? दिन-रात खेती किसानी करो और खूब मेहनत के बाद भी अगर मौसम ने अपनी कुदृष्टि फसलों पर डाल दी तो कुछ भी हाथ न आए। अंततोगत्वा राजाराम के छोटे बेटे माधव के साथ रानी का विवाह तय हुआ। दहेज़ की कुछ माँग के अनुसार दयाराम काका ने अपनी ज़मीन का कुछ हिस्सा उसके नाम भी कर दिया। 

दयाराम काका और कमली काकी का स्वास्थ्य अब ठीक न रहता था। उम्र भी ज्यादा हो रही थी। शादी के कुछ महीनों बाद कमली काकी की तबीयत फिर से ख़राब हो गई। खटिया पर लेटी काकी की बस साँसे चल रही थी। अब माथे पर ठंडी पट्टी करने वाली रानी न थी। झूरन बाई को बुलाने वाला सुरेश भी अपने काम पर गया था। मुन्ना भी किसी फैक्ट्री में मजदूरी करने लगा था। दयाराम काका रोज की ही तरह चारा लेने गए हुए थे। पड़ोस में रहने वाली रानी की सहेली फुलिया कमली काकी के पास थी। फुलिया की माँ का देहांत बचपन में ही हो गया था इसलिए कमली काकी को वो अपनी माँ जैसा ही मानती थी। फुलिया तुरंत ही झूरन बाई को बुलाकर लाई। झूरन अपने तमाम तरह के झाड़ फूक आज़मा रही थी। लेकिन काकी की तबीयत बहुत ही ज्यादा बिगड़ चुकी थी। कुछ देर बाद काका आए और उन्होंने शहर जाने की तैयारी बनाई। काकी को अब अस्पताल ले जाना बहुत ज़रूरी हो गया था। उसे गाँवों के कुछ लोंगों की मदद से बैलगाड़ी में लिटाया गया और साथ में एक औरत का होना भी ज़रूरी था इसलिए झूरन बाई को भी चलने को कहाँ गया। गाँव से शहर का अस्पताल 30-35 किलोमीटर दूर था। बैलगाड़ी से जाने पर एक से दो घंटे तो लग ही जाते थे। काकी के शरीर में सिर्फ हल्की हल्की साँसें चल रहीं थी। वो न किसी से कुछ बातें कर पा रही थी और न ही आँखे खोल रही थी। घर से कुछ दूर निकले ही थे कि झूरन ने काकी के चहरे की ओर देखा, जो बिल्कुल सिकुड़ सा गया था। देह डंठी पड़ चुकी थी। हाथ पैर की ऊँगलियाँ ढीली पड़ गईं थी। शरीर में किसी भी तरह की हलचल नहीं हो रही थी। झूरन समझ गई थी कि काकी अब परलोक सिधार गई है। लेकिन झूरन ने किसी को कुछ नहीं बताया। दस किलोमीटर आगे जाने के बाद गाड़ी रूकवा कर झूरन ने कहा- " काका ! अब काकी का बच पाना बहुत मुश्किल है। अस्पताल जाते जाते ही दम तोड़ देगी।" 

"ऐसा क्यों कह रही है झूरन ? तूने झाड़फूक से ज्यादा कुछ जाना है कभी" दयाराम काका ने गुस्से में कहा।

और फिर अचानक काकी की तरफ देखकर दयाराम की आँखों में आँसू आ गए। शायद वो भी जान गए थे कि उनकी पत्नी अब उन्हें छोड़कर जा चुकी है। पत्नी को खोने का दुख हृदय से प्रेम की तार टूट जाने जैसे होता है। दुनियाँ के हर तरह के सुख दुख बाँटने वाली और बिना कुछ बखान किए ही हर तरह की भावनाओं को स्वतः ही समझने वाली पत्नी ही होती है। जिसका साया अब दयाराम से बहुत दूर जा चुका था। सभी की मंजूरी पर बैलगाड़ी को वापस गाँव की ओर लाया गया। सुरेश और मुन्ना तबतक अपने घर आ गए थे। द्वार पर पहुँचते ही मुन्ना और सुरेश माँ के पास पहुँचे और तड़प तड़प कर रोने लगे। माँ का मृत शरीर दोंनों भाईयों से छोड़ा नहीं जा रहा था। किसी तरह से गाँव वालों ने दोनों बेटों को मनाया और संबंल बाँधा। बेटी रानी को भी सूचना दी गई। वो भी माधव के साथ मायके पहुँची। पूरे परिवार में मातम छाया हुआ था। काकी का अंतिम संस्कार किया गया। दयाराम काका उस रिक्त स्थान की पूर्ति कभी न कर पाए।

कुछ वर्षों बाद सुरेश और मुन्ना का भी विवाह हो गया। घर के तमाम तरह के सुख, ज़मीन - ज़ायदाद, धन-दौलत होने के साथ दोनों बेटों और रानी की शादी और फिर काकी के इलाज़ के बाद उनके हिस्से अब कुछ न बचा था। दोनों भाईयों में आपसी मतभेद बना ही रहता था। दयाराम काका को बुढ़ापे में उनकी सेवा करने वाला कोई न था। सुबह की रोटी अगर मुन्ना दे देता तो शाम के खाना का तय नहीं रहता कि सुरेश के यहाँ मिलेगा भी य नहीं।

उम्र भी ज्यादा हो गई थी और अक्सर बीमार रहने के कारण काका अब बहुत कम ही चारा लेने जाया करते थे। घर में किसी बेटे को इतनी फुर्सत न थी कि शहर के किसी अस्पताल में ले जाकर उनका इलाज़ करवा दे। दोनों की पत्नियाँ भी काका के खाँसने पर खूब गुस्सा करती थी।

सुबह के पाँच बज रहे थे। काका का स्वास्थ्य सही न था। उसके बावज़ूद भी वो सुबह सुबह चारा लेने निकल पड़े। वैशाख-ज्येष्ठ की चिलचिलाती धूप में बाहर निकलना बेहद कठिन होता है, लेकिन दयाराम काका हंसिया लेकर निकल गए। किसी तरह वहाँ पहुँच तो गए लेकिन चारा काटते काटते कुछ देर बाद उनकी आँखों के सामने अंधेरा छाने लगा। हाथ से हसिया छूट गई। दयाराम वहीं गिर पड़े। आसपास के किसान उनके पास पहुँचे तो देखा कि दयाराम काका की आँखें बंद थी। साँसों ने उनका साथ छोड़ दिया था और वो वहीं प्राण त्याग चुके थे।

 ---- ©®प्रियांशु कुशवाहा "प्रिय" 

             मो. 9981153574

शनिवार, 25 अप्रैल 2020

एक प्रेरक कहानी ~ शरत चंद्र चट्टोपाध्याय


शरतचन्द्र चट्टोपाध्याय ( 15 सितंबर 1876 - 16 जनवरी 1936 ) बांग्ला के सुप्रसिद्ध उपन्यासकार एवं लघुकथाकार थे। वे बांग्ला के सबसे लोकप्रिय उपन्यासकार हैं।उनकी अधिकांश कृतियों में गाँव के लोगों की जीवनशैली, उनके संघर्ष एवं उनके द्वारा झेले गए संकटों का वर्णन है। इसके अलावा उनकी रचनाओं में तत्कालीन बंगाल के सामाजिक जीवन की झलक मिलती है। शरतचंद्र भारत के सार्वकालिक सर्वाधिक लोकप्रिय तथा सर्वाधिक अनूदित लेखक हैं।
प्रस्तुत कहानी उनकी कृति "शरतचंद्र की प्रेरक कथाएँ" से ली गई है। "राजू का साहस" कहानी में कथाकार बताते हैं कि जीवन में कितना भी कठिन समय आ जाए परंतु अपना साहस कभी नहीं खोना चाहिए। साथ ही जीवन में प्रत्येक व्यक्ति की मदद करनी चाहिए। स्वयं के भीतर भय को पैदा करके मनुष्य कभी सफलता नहीं पा सकता और निर्भीक होकर हर एक काम करने से मनुष्य कठिन परिस्थितियों में  भी विजयी होता है। कहानी में यह भी देखने को मिलता है कि जब घर के सदस्य वृद्ध हो जाते हैं  तो उनके परिवार वालों को उनसे घृणा सी होने लगती है और वो उन पर बिल्कुल भी ध्यान न देकर स्वयं की दुनियाँ में मग्न रहते हैं। तो आइए सुनते हैं कहानी.............


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अपने विंध्य के गांव

बघेली कविता  अपने विंध्य के गांव भाई चारा साहुत बिरबा, अपनापन के भाव। केतने सुंदर केतने निकहे अपने विंध्य के गांव। छाधी खपड़ा माटी के घर,सुं...