बघेली कविता -
डारिन खीसा घूंस
एकठे गाँव के सुने जो होइहा, अइसा हिबय कहानी
दुई जन मिलिके खाइन पइसा, जनता मांगिस पानी।
सरपंच साहब सरकारी पइसा, लीन्हिंन सगला ठूस,
सचिव के संघे मिलिके भइया, डारिन खीसा घूंस।
टुटही फुटही छांधी वाले, सोमय परे उपास,
बंगला वाले बेउहर काहीं, जारी भा आवास।
रोड त एतनी निकही खासा, कांदव कीचर मा भरी रहै,
चउमासे के झरियारे मा, भइंसी लोटत परी रहैं।
बाँच रहा जउं चाउर गोहूं, भरिके एकठे बोरी,
बिकन के कोटेदार कहथे, रातिके होइगै चोरी।
कोउ वहां जो मुंह खोलै त, कुकुरन अस गमराय,
जेतना नहीं समाइत ओसे जादा पइसा
खांय।
होई खासा नउमत दादू, हम न लेबै नाव,
चली बताई अपनै भइया, कउन आय व गाँव।
- प्रियांशु 'प्रिय'
मोबा- 9981153574
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