किन्हौ चढ़ी बोखार है इनही,खानौ तक न खाय।
सास सकेलै काम घरे के,दस्स बजे तक सोमैं।
बड़ी बहाने बाज हई ईं,बोल देय त रोमैं।
मइके माहीं चारा छोलै,गोबर घाल उचामै।
ससुरे माहीं घिन लागत ही,थोभरा रोज फुलामैं।
अनटेढ़ी के बात करैं ई,मोबाइल भर गूलैं।
चमक चमक के रील बनामै,लाइक माही भूलैं।
सास बुढ़ीबा रोटी बनबै,इनही चढ़ी बेरामी।
दादू के त बात न पूछा,बहुतै हबै हरामी।
जमके लेय खूब उपरउझा,ओहिन कइती बोलै।
रंगा रहै दुलहिन के रंग मा, आगे पीछे डोलै।
रील मा भैया हंस के बोलै,अउचट थिरकै नाचैं ।
टोंक देय जो थोरकौ कोहू,कहतू हिबै कुलाचैं।
कहैं प्रियांशु अइसन दुलहिन जउने घर मा आबै।
मचा रहै रन जुज्झ हमेशा,मनई सुक्ख न पाबै।
- कवि प्रियांशु 'प्रिय'