हम बस
यहाँ कुंवारे बैठे
हम बस
यहाँ कुंवारे बैठे
जैसे दीमक लकड़ी को खाता है
ठीक उसी तरह,
धीरे धीरे खाती जा रही है
विचारधारा
मनुष्य के मस्तिष्क को..
रोज़ अनेक संस्थाएं बनती जा रही हैं।
विचारधारा को अपनाकर..
कोई गरीब की बात करता है
कोई दबे कुचलों की बात करता है
तो इंकार कर देती है एक विचारधारा इसे अपनाने से
कोई अमीरों की बात करता है
कोई पूंजीपतियों की बात करता है
तो इंकार कर देती है दूसरी विचारधारा इसे अपनाने से
शामिल होना चाहता हूं,
एक ऐसी विचारधारा में,
जो करें मनुष्य की बात और निर्माण करे मानवता का..
- प्रियांशु 'प्रिय'
बेटी की विदाई पर बघेली कविता
अम्मा रोमयं , बहिनी रोमयं, रोमयं सगले भाई,
बाबौ काहीं खूब रोबाइस, बिटिया केर बिदाई।
बिटिया केही भए मा बाबा, खूब उरांव मनाइन ते,
अपने अपने कइती सबजन, कनिया मा छुपकाइन ते।
चारिउ कइती जंका मंका, खूबय खर्चा कीन्हिंन तै,
यहै खुशी के खातिर बाबा, सबतर नेउता दीन्हिन तै।
कइ दिन्हिंन अब काज हो दादा, होइगै वहौ पराई।
बाबौ काहीं खूब रोबाइस, बिटिया केर बिदाई.......
घर के बहिनी बिटिया आईं, मेंहदी लागय लाग,
सुध कइ कइ के काजे केहीं, ऑंसू आमय लाग।
आस पड़ोस के सबै मेहेरिया, घर मा आमय लागीं,
सबजन साथै बइठिके देखी, अंजुरी गामय लागीं।
रहि रहि ऑंसू बहय आज हम, कइसन केर छिपाई,
बाबा काहीं खूब रोबाइस, बिटिया केर बिदाई.......
फूफू काकी मउसी बहिनी, ऑंसू खूब बहामय,
बाबा रोमय सिसक सिसक के, बेटी का छुपकामय।
बिदा के दरकी बिटिया काहीं , अम्मा गले लगाए,
रोए न लाला बोलि बोलिके, ऑंसू रहै बहाए।
सीढ़ी के कोनमा मा बइठे, रोमय सगले भाई,
बाबा काहीं खूब रोबाइस, बिटिया केर बिदाई....... - कवि प्रियांशु 'प्रिय' मो. 9981153574
‘सैफू के बघेली गीत’ कृति की भूमिका जो कि अवधेश प्रताप सिंह विश्वविद्यालय में हिंदी विभाग के अध्यक्ष रहे डा. भगवती प्रसाद शुक्ल जी द्वारा 1982 में लिखी गई थी।
बघेली शृंगार कविता