बघेली शृंगार कविता
आसव काज का भा पिंटू केहीं, निकही मेहरी पाइन,
दुलहिन देखैं केर बोलउआ, घर घर मा पहुंचाइन।
टोला भरके जुरैं मेहेरिया, देखैं मुहुँ उघारैं,
अहिमक करैं बड़ाई ओखर, ओहिन कइत निहारैं।
एक जन कहैं कि खासा सुंदर, लागत ही महारानी,
फूल गुलाब के जइसन लागय, महिपर अस ही बानी।
ऑंखिन काहीं रहय झुकाए, सबका देख लजाय,
छुई-मुई के पउधा जइसन, चुप्पे से सकुचाय।
ओठ के नीचे तिल है ओखे, जउने डीठ न लागय,
जइसा लड़िकन के माथे मा, टीका अम्मा लगाबय।
गोड़े माहीं पायल पहिरे, करिहां माहीं सकरी,
छनछन केहीं धुन मा लागय, गाबय कोउ कजरी।
ओठन माहीं लगी ही लाली, लागय एतने प्यारे,
गुड़हल केहीं फूल या जइसा, खिला होय भिन्सारे।
- कवि प्रियांशु 'प्रिय'
सतना (म प्र)
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