राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त ~
#राष्ट्रकवि_मैथिलीशरण_गुप्त जी से पहला परिचय पंचवटी कविता से हुआ था। कविताओं में रुचि तो पहले से ही थी लेकिन बचपन में अलंकारों की इतनी समझ न थी। अनुप्रास अलंकार के उदाहरण के लिए गुप्त जी की पंचवटी कविता की पंक्ति “चारु चंद्र की चंचल किरणें, खेल रहीं हैं जल थल में” याद करनी पड़ी। इसके बाद धीरे धीरे मन में एक उत्सुकता सी जगी और गुप्त जी की कविताएँ पढ़ने का मन हुआ। कहानी, नाटक, कविता, इत्यादि साहित्य की लगभग प्रत्येक विधा पर बेहद ही अद्भुत शब्द संयोजन से गुप्त जी ने रचनाएँ की। मैथिलीशरण गुप्त जी अपने पूरे जीवन में दुखों से घिरे रहे। अपनी दुखभरी ज़िंदगी का खालीपन उन्होंने अपनी रचनाओं में बाँट लिया। उनका परिचय महावीर प्रसाद द्विवेदी जी से हुआ। जो उन दिनों देश की लोकप्रिय पत्रिका "सरस्वती" के संपादक थे। उन्होंने गुप्त जी की कविताएँ 'सरस्वती' में प्रकाशित की और उन्हें कविताओं की बारीकियों के बारें में भी बताया। उसके बाद से गुप्त जी उन्हें अपना साहित्यिक गुरू मानने लगे। द्विवेदी जी के लिए उन्होंने लिखा -
"करते तुलसीदास भी कैसे मानस का नाद"
"महावीर का यदि उन्हें मिलता नहीं प्रसाद"
स्त्री की संवेदना और खासतौर पर रामायण ,महाभारत के वो पात्र जिनमें बहुत ही कम साहित्यकारों ने अपनी कलम चलाई है। उन विषयों पर गुप्त जी की गहरी दृष्टि रही। लक्ष्मण और उनकी पत्नी उर्मिला को केंद्र में रखकर लिखा गया खंड काव्य (साकेत) ,गौतम बुद्ध के गृह त्याग और उनकी पत्नी यशोधरा की वेदना में लिखी गई उनकी रचना “यशोधरा” और विष्णुप्रिया, कैकेयी का अनुताप जैसी अनेक अमर रचनाएँ उन्होंने की। हिंदुस्तान की मिट्टी से अटूट प्रेम गुप्त जी को हमेशा ही इससे जोड़े रहा। हिंदुस्तान के कठिन हालात को दर्शाती रचना "भारत भारती" लिखने के बाद उन्हें देशभर में खासी लोकप्रियता मिली। उन दिनों उनकी ये कविता स्कूल की प्रार्थनाओं में भी गाई जाने लगी थी। धीरे धीरे अंग्रेजी सरकार ने भारत भारती की सभी प्रतियाँ जब्त कर लीं। भारत भारती की कुछ पंक्तियाँ देखिए ~
"मानस भवन में आर्य्जन जिसकी उतारें आरती "
" भगवान् ! भारतवर्ष में गूँजे हमारी भारती। "
गुप्त जी राष्ट्रीय आंदोलनों में भी सक्रिय रहे और जेल भी गए। वहाँ भी उन्होंने कई कविताएँ रची। ग्रंथ - 'कारा' और महाकाव्य- 'जयभारत' की रचना उन्होंने जेल में ही की। उनके जेल से छूटने के कुछ समय बाद महात्मा गाँधी जी की हत्या कर दी गई। उस वक्त गुप्त जी बेहद सदमें थे। उन्होंने लिखा -
"अरे राम! कैसे हम झेले,
अपनी लज्जा अपना शोक"
"गया हमारे ही पापों से,
अपना राष्ट्रपिता परलोक"
जीवन में अंतिम समय तक उन्हें अपनों के खोने का दुख सताता रहा उसके बाद भी वो रचनाएँ करते रहे। महावीर प्रसाद द्विवेदी के बाद मैथिलीशरण गुप्त ही थे जो हिंदी को राष्ट्रभाषा के रूप में सुशोभित होते देखना चाहते थे। लेकिन शायद ये विधाता को मंजूर न था।
उन्होंने अंतिम कविता लिखी~
गूँज बची है गीत गए।
अब वे वासर बीत गए।
मन तो भरा भरा है अब भी,
पर तन के रस रीत गए।
चमक छोड़कर चौमासे बीते,
कम्प छोड़कर शीत गए।
अपने छोटे भाई की मृत्यु का दुख उन्हें भीतर तक तोड़ गया। 11 दिसंबर 1964 को अचानक उन्हें भी दिल का दौरा पड़ा। अपनी अमर देह को छोड़कर वे भी परलोग सिधार गए। जब जब मन निराश और दुखी होता है तब तब गुप्त जी 'नर हो न निराश करो मन को' कहते हुए सामने आ जाते हैं । 'जयद्रथ वध', 'रंग में भंग', 'शकुंतला', 'किसान', 'झंकार', 'नहुष' जैसे अनेकों अमर कविताएँ और कृतियाँ आज भी हिंदी के पाठकों को प्रिय हैं। हिंदी और साहित्य प्रेमी उनके जन्मदिन को कवि दिवस के रुप में मनाते हैं। आज राष्ट्रकवि पद्मभूषण मैथिलीशरण गुप्त जी को उनके जन्मदिन पर सादर नमन। 🙏🏻
#MaithiliSharanGupt
#मैथिलीशरण_गुप्त
~ प्रियांशु 'प्रिय'
Bahut hi sundar sabd sanyojan k sath maithliji k jevan ka chitrakan
जवाब देंहटाएंआभार 🙏
हटाएंबेहतरीन संक्षेप जीवन परिचय और विवरण।
जवाब देंहटाएं👌👌👍
प्रिय निलय भाई। बहुत आभार ❤🙏
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