बुधवार, 26 सितंबर 2018

इंसानों की बस्ती

कविता ~

 ( आँखों में कोहरा है )

इंसानों की बस्ती में अब हैवानों का पहरा है,
नफरत का रंग अबकी यहाँ बहुत गहरा है।

ईर्ष्या की नदियाँ जोरो-शोरों से बहती हैं,
प्रीत का पानी जरुर कहीं-न-कहीं ठहरा है।

हर बात सुनने चला आता जो आपके घर,
सच मानिए वही इंसान बहुत बेहरा है।

जला देते हैं लोग जहाँ देश के द्रोहियों को,
वहाँ हर रोज का त्योहार ही दशहरा है।

साफ कभी न दिखेगी इंसानी चेहरे की धूल,
हर एक चेहरे के पीछे एक दूसरा चेहरा है।

धुंधले नज़र आते हैं मुझे इस बस्ती के लोग,
शायद मेरी ही आँखों में कहीं घना कोहरा है।



  © प्रियांशु कुशवाहा " प्रिय "
शासकीय स्वशासी महाविद्यालय
          सतना ( म. प्र )

   




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