शनिवार, 3 मई 2025

‘सैफू के बघेली गीत’ कृति की भूमिका

 

‘सैफू के बघेली गीत’ कृति की भूमिका जो कि अवधेश प्रताप सिंह विश्वविद्यालय में हिंदी विभाग के अध्यक्ष रहे डा. भगवती प्रसाद शुक्ल जी द्वारा 1982 में लिखी गई थी।

'आंचलिक बोलियों में साहित्य सृजन का काम रचना धर्मिता का सुविधा प्रद रूप नहीं है। क्योंकि बोलियों के साहित्य की एक सीमा होती है, उसका राष्ट्रव्यापी प्रचार प्रसार नहीं हो पाता – इसलिए महत्वाकांक्षी साहित्यकार कभी भी आंचलिक बोलियों में सृजन नहीं करते, क्योंकि वे जानते हैं कि साहित्य के इतिहास में उनका नाम इस आधार पर नहीं रेखांकित हो सकता -- इसलिए जो भी साहित्यकार आंचलिक साहित्य के सृजन में लगे हुए हैं। वे तलवार की धार पर चल रहे हैं।
सैफू का मार्ग भी कंटकाकीर्ण है। यह कल्पना करना भी दुरूह लगता है कि वे चालीस वर्षों से नितांत उपेक्षित एक आंचलिक बोली बघेली में साहित्य सृजन कर रहे हैं। यह उनके साहस और साधना का परिचायक है। मैं उन्हें कोई पैंतीस वर्षों से जानता हूँ। वे रोज लिखते हैं। लेखन को धर्म मानकर लिखते हैं। समाज और देश के लिए लिखते हैं। धरती और किसान के लिए लिखते हैं।
‘सैफू’ बघेली के लिए अपरिहार्य हैं। बघेली की इस गागर को उन्होंने भाव के अमृत से भरा है। इसीलिए आज उनकी कविता की कीर्ति कलश उच्चासन पर आसीन है।
‘सैफू’ के बघेली गीत उनकी अद्यतन कृति है। इसमें उनके इकतालीस गीत संग्रहीत हैं। इसमें विषय की विविधता है। कथ्य की विदग्धता है। शिल्प का कौशल है, भाषा जन जन में व्याप्त बघेली है। इसमें आरोपित कुछ भी नहीं, जो कुछ है सहज है, स्वाभाविक है।
बघेली के गीत में, हर मौसम के गीत हैं। फागुन के, सामन के, ग्रीष्म के, सभी में टटकापन है। सरसता है – किसी किसी ऋतु पूरक गीत में मन के मीत का मोहन आमंत्रण है।
‘टपकै मल महुवा अधरतिया,
होइगे हें बलम मोर मनवसिया।
सेजा विछाऊँ सुपेती बिछाऊँ,
सोमैं न आवा बलम रसिया,
टपकै मन महुआ अधरतिया।।‘’
इन गीतों में एक प्रकार की निजता है। जिसे सैफू की निजता कहेंगे। यहाँ की धरती की सुधर मेहेरिया, का रूप कितना जीवंत है –
‘रहै बिदुरात सांझ बइठ डेहेरिया,
कहौं केसे राम मोर सूधर मेहेरिया।‘’
मैंने सैफू के गीत पढ़े भी हैं और सुने भी हैं। इनमें बघेली की आत्मा बोलती है। इनकी धड़कनों में बघेलखंड की पीड़ा, हर्ष, विषाद सभी कुछ सन्िित है।
सैफू से बघेली गीत जन जन में प्रचलित हों, घर घर में गाये जाऍं यही मेरी कामना है।
रीवा डा. भगवती प्रसाद शुक्
05/06/1982 आचार्य एवं अध्यक्ष हिंदी विभाग
अवधेश प्रताप सिंह विश्व. रीवा मध्यप्रदेश

बघेली कवि सैफुद्दीन सिद्दीकी सैफू जी का परिचय

बघेली कवि सैफुद्दीन सिद्दीकी सैफू जी का परिचय


बघेली भाषा के महानीय कवि श्री 'सैफू' का पूरा नाम श्री सैफुद्दीन सिद्दीकी है। इनका जन्‍म अमरपाटन तहसील के ग्राम रामनगर जिला सतना मध्‍यप्रदेश में 1 जुलाई 1923 हुआ था। बाणसागर परियोजना से रामनगर गाँँव बहुत प्रभावित हुआ। जिससे सैफू जी ने अपना मकान सतना जिले में स‍िविल लाइन के निकट 'गढ़ि‍या टोला, बगहा' में बनवा लिया था। आज भी इनके पुत्र जमीलुद्दीन सिद्दीकी सपरि‍वार सहित वहीं निवास करते हैं। वे स्वयं भी बघेली के सशक्‍त कवि हैं।   

सैफू जी के पिता मुंशी नजीरूद्दीन सिद्दीकी 'उपमा' हिंदी उर्दू तथा बघेली के प्रतिभा संपन्‍न कवि थे। इनके पिता की दो प्रकाशित कृतियाँ 'उपमा भजनावली' और 'बहारे कजली'  मिलती है। काव्‍य रूचि अपने पिता से प्राप्‍त कर श्री सैफू ने बचपन से ही कविता करना प्रारंभ कर दिया था। अपने पिता के समान आप भी बघेली एवं हिंदी के परम अराधक थे।

सैफू जी को हिंदी उर्दू अरबी तथा अंग्रेजी का भी अच्‍छा ज्ञान था। कवि सैफू जी सतना जिले में राजस्‍व निरीक्षक के पद पर कार्यरत थे।

कवि सैफू जी ने आयुर्वेद चिकित्‍सा विशारद एवं हिंदी साहित्‍य रत्न की परीक्षा पास करने के बाद कुछ समय तक एक सफल वैद्य के रूप में जनता की सेवा की है। समयाभाव के कारण वे वैद्यक से दूर रहे और फिर जीवनपर्यंन्‍त लोक साहित्‍य के अध्‍ययन एवं रचना में संलग्‍न रहे। सैफू जी की बघेली कवि‍ताएँ एवं कहानियाँ प्रकाश, भास्‍कर, बांधवीय, जागरण आदि पत्राें में प्रकाशित होने के साथ साथ आकाशवाणी रीवा से भी प्रसारित होती रहीं।  

सन् 1977 में बघेली लोक कला समारोह सीधी में भाषा विभाग भोपाल से इनकी प्रथम कृति 'दिया बरी भा अंजोर' में 1500 रूपए का दुष्‍यंत पुरस्‍कार दिया गया था। सैफू जी की अनेक रचनाऍं स्‍वर्गीय श्रीमान बांधवीय महाराजा श्री गुलाब सिंह जूदेव रीवा नरेश द्वारा पुरस्‍कृत कि‍या गया था। 
उन दिनों कवि सम्‍मेलन आदि में सैफू जी की रचनाएँ श्रोता बड़े चाव से सुनते थे।  

सैफू जी की प्रमुख कृति‍याँ


1. दिया बरी भा अंजोर ( बघेली काव्‍य संग्रह )
2. भारत केर माटी  (बघेली काव्‍य संग्रह )
3. एक दिन अइसव होइ ( बघेली कुण्‍डलियाँ )
4. सैफू की बघेली पहेलियाँँ
5. सैफू के बघेली गीत
6. नेउतहरी (कहानी संग्रह) 
7. चिटका की राख ( बघेली में एक चिटका की कहानी  )
8. इन्‍दल दिल्‍लू ( प्रबंध काव्‍य )

सोमवार, 21 अप्रैल 2025

बघेली शृंगार कव‍िता

बघेली शृंगार कव‍िता

आसव काज का भा पिंटू केहीं, निकही मेहरी पाइन,
दुलहिन देखैं केर बोलउआ, घर घर मा पहुंचाइन।

टोला भरके जुरैं मेहेरिया, देखैं मुहुँ उघारैं,
अहिमक करैं बड़ाई ओखर, ओहिन कइत निहारैं।

एक जन कहैं कि खासा सुंदर, लागत ही महारानी,
फूल गुलाब के जइसन लागय, महिपर अस ही बानी।

ऑंखिन काहीं रहय झुकाए,‌ सबका देख लजाय,
छुई-मुई के पउधा जइसन, चुप्पे से सकुचाय।

ओठ के नीचे तिल है ओखे, जउने डीठ न लागय,
जइसा लड़िकन के माथे मा, टीका अम्मा लगाबय।

गोड़े माहीं पायल पहिरे, करिहां माहीं सकरी,
छनछन केहीं धुन मा लागय, गाबय कोउ कजरी।

ओठन माहीं लगी ही लाली, लागय एतने प्‍यारे,
गुड़हल केहीं फूल या जइसा, खिला होय भिन्‍सारे। - कवि प्रियांशु 'प्रिय' सतना (म प्र)

बुधवार, 9 अप्रैल 2025

चैत्र महीने की कविता

 चइत महीना के बघेली कविता 



कोइली बोलै बाग बगइचा,करहे अहिमक आमा।
लगी टिकोरी झुल्ला झूलै,पहिरे मउरी जामा।
मिट्टू घुसे खोथइला माही,चोच निकारे झांकैं।
कुछ जन बइठ डेरइयन माही,बच्चन काहीं ताकैं।
राई मसुरी चना कटरिगा,अब गोहूं के बारी‌।
खेतन माहीं चरचरायके,लगी कटाई जारी।
भिंसारेन से जागै मन ई,बोलि न पाबै कउआ।
महुआ बिनै जांय घर भरके,लइके टोपरी झउआ‌।।
टेसुआ लहलहायके फूला,सेमर है गमरान।
पत्ता सब हेरान हे देखी,फूलै फूल जुहान।
मूड़े बोझा धरे बहुरिया देखी ,क इसन हीठै टनमन।
छम छम छम छम पायल बाजै,होइजाय हरियर तन मन।
हरवेस्टर से होय कटाई जिनखे खेती जादा।
लंबी मूछ मुडै़ठी बाधे,बागि रहे है दादा।
चैत महीना लगै सोहामन,मन मा खुशी जगाबैं।
किहिस किसान परिश्रम जेतना,व ओतनै फल पाबै।
एहिन से है सब किसान के साल भरे के तोरा।
कुलुकैं लगी घरौ के मनई,अन्न अइ भर बोरा।।
कहै प्रियांशु धन्न किसनमे,लेई मोर प्रणाम।
तोहरेन मेहनत से सब पामै,जीवन मा आराम। - कवि प्रियांशु 'प्रि‍य'

बघेली क‍विता - आसव के सरपंची मा

बघेली कविता
आसव के सरपंची मा
आसव‌ के सरपंची माहीं,‌ तनिगा खासा बंगला,
सरकारी पैसा काहीं ईं, मसक लिहिन‌ ही सगला।

सचिव साहब के खासा जलवा, पहुड़े टांग पसारे,
खाय खाय गभुआर के पइसा, सोमैं थूथुन फारे।

हम पंचायत भवन मा देखन, बंद रहत है ताला,
गोरुआ भइसीं लोटि रहे हें, कोउ न पूछय वाला।

उहय भवन‌ के भीतर भइया, बइठ लाग हें दद्दी,
धइ के चिखना देशी‌ वाला, छानैं पउआ अद्धी।

ऊपर सेही जॉंच करैं जब, आबत हें अधिकारी,
उनहूं बइठिके इनखे संघे, पेलय खूब सोहारी।

बॉंच रहा जउं चाउर गोहूं, भरिके चार ठे बोरी,
बिकन‌ के कोटेदार कहत‌ हें, रातिके होइगै‌ चोरी।

घर सेहीं जनपद पंचायत, सबतर इनखर जलवा,
नीचे से ऊपर तक सलगे, छानैं पूड़ी हलवा।

केसे जाय गोहार‌‌‌ लगाउब, केसे करब शिकायत,
सब इनहिन के मनई आहीं, सांसद अउर विधायक।

कवि प्रियांशु कहत हें भाई, हम न लेबै नाव,
चली बताई अपनै पंचे, आय कउन व गाँँव। - कवि प्रियांशु 'प्रिय' सतना (म.प्र.)

सोमवार, 24 मार्च 2025

हिंदुस्‍तानी सैनिक पर बघेली कविता

 हिंदुस्‍तानी सैनिक पर बघेली कविता 

सीमा मा जे डटे लाग हें,भारत माता के लै नाम।
हाथ जोड़िके उई सैनिक का,बारंबार प्रनाम।

महतारी के ममिता छाड़िन,बहिनी केर पियार।
देश के रक्षा करैं के खीतिर, होइगे हें तैयार ।

जीरो डिगरी तापमान मा,रात रात भर पहरा।
हाथ गोड़ सब ठिठुर जाय,या परै गजब के कोहिरा।

हिम्मत कबौ न हारै फौजी,आपन फरिज निभामै।
आखी कउनौ काढ़ै दुश्मन,चट्टै धूल चटामैं।

घर दुआर जब त्यागिन आपन ,लगी दाव मा जान।
बड़े चैन से तबहिन सोबा आपन हिन्दुस्तान ।

सीमा मा बैरिन के लाने,खड़े है बनिके काल।
तनी रहैं बंदूखै हरदम,चलै जो कउनौ चाल।

धन्य हेमे उई बाप हो भाई धन्य हिबै महतारी।
जन्म दिहिस अइसन लड़िकन,करथें रक्षाकारी।

कहैं प्रियांशु फौजी साथी,नमन है तुम्ही सपूत।
माथे मा रज धूल धराके,सेवा करै अकूत।

- कवि प्रियांशु ' प्रि‍य' 

गुरुवार, 13 मार्च 2025

होली पर बघेली कविता

 होली पर बघेली कविता 


आज आय होली‌ हो भैया, रंगन के तेउहार।
मिलजुल सबके रंग लगाई, बना रहै बेउहार।

उचैं बिहन्ने लड़िका बच्चा, खूब उराव मनामय।
कइयक मेर के रंग डारिके, सबकाहीं नहबामय।

फगुआ के य पर्व मा देखी, सबजन‌ रंग लगाई।
सरहज संघ नंदोई खेलैं, देवर संग भौजाई।

पै आजकाल्ह के लड़िका देखा, करैं खूब हुड़दंग।
गोबर माटी सान सून के , रहैं थपोके रंग।।

कुछ त भाई चिन्हांय न कइसौ, थोपे हें एक झउआ।
कुछ जन घूमयं चाईं माईं, पिए हें एक दुई पउआ।।

डी जे के कंउहट के आगे, हेरान गॉंव के रीत।
अब न निकहा रंग लगामैं, अउर न फगुआ गीत।।

संस्कृति या बचामय खातिर, रहा खूब गंभीर।
माथे केर तिलक न छूटय, गलुआ लगै अबीर।।

कहैं प्रियांशु सुना सबय जन, साथी भाई हितुआ।
चली नगरिया ढोलकी लइके, सबजन गाई फगुआ।‌

- कवि प्रियांशु प्रिय 
सतना ( म.प्र )

कविता- जीवन रोज़ बिताते जाओ

       जीवन रोज़ बिताते जाओ                                                                                भूख लगे तो सहना सीखो, सच को झूठा ...