जैसे दीमक लकड़ी को खाता है
ठीक उसी तरह,
धीरे धीरे खाती जा रही है
विचारधारा
मनुष्य के मस्तिष्क को..
रोज़ अनेक संस्थाएं बनती जा रही हैं।
विचारधारा को अपनाकर..
कोई गरीब की बात करता है
कोई दबे कुचलों की बात करता है
तो इंकार कर देती है एक विचारधारा इसे अपनाने से
कोई अमीरों की बात करता है
कोई पूंजीपतियों की बात करता है
तो इंकार कर देती है दूसरी विचारधारा इसे अपनाने से
शामिल होना चाहता हूं,
एक ऐसी विचारधारा में,
जो करें मनुष्य की बात और निर्माण करे मानवता का..
- प्रियांशु 'प्रिय'