मंगलवार, 28 अप्रैल 2020

कविता || चुप रहो ! यहां सब शांत हैं || कवि प्रियांशु "प्रिय" ||

कविता ...

( चुप रहो ! यहाँ सब शांत हैं ...... ) 

यह वक्त ही कुछ ऐसा हो गया है कि सबको सबसे घृणा, ईर्ष्या, नफ़रत सी होने लगी है। एक व्यक्ति स्वयं को सर्वश्रेष्ठ साबित करने के लिए कुछ भी करने पर उतारू हो रहा है। भरी भीड़ में भी सब अकेले ही हैं। सत्ता के गलियारे तक अगर कोई बात चली जाए तो वहाँ सत्य बोलना मौत के साथ खेल खेलेने जैसा है। इसलिए हर जगह सत्य की भाषा और सत्य बोलने वालों की ज़बान बंद कर दी गई है। सरकार के पास गरीबों के खाने से लेकर उनके आवास तक की योजना महज़ कागज़ में ही सुरक्षित है। वो सब कागज़ी योजनाएं भी धीरे धीरे कूड़ेदान में डाली जा रही हैं। 
लोगों के बदलते हुए व्यवहार, चरित्र से लेकर सियासत तक की अंधी व्यवस्था को सुनिए इस कविता में......

( चुप रहो!  यहाँ सब शांत हैं... )

~    लेखन एवं प्रस्तुति
(  कवि प्रियांशु कुशवाहा "प्रिय" )
मों.  9981153574 , 7974514882



कविता यहाँ से सुने 👉👉   चुप रहो ! यहाँ सब शांत हैं....

शनिवार, 25 अप्रैल 2020

एक प्रेरक कहानी ~ शरत चंद्र चट्टोपाध्याय


शरतचन्द्र चट्टोपाध्याय ( 15 सितंबर 1876 - 16 जनवरी 1936 ) बांग्ला के सुप्रसिद्ध उपन्यासकार एवं लघुकथाकार थे। वे बांग्ला के सबसे लोकप्रिय उपन्यासकार हैं।उनकी अधिकांश कृतियों में गाँव के लोगों की जीवनशैली, उनके संघर्ष एवं उनके द्वारा झेले गए संकटों का वर्णन है। इसके अलावा उनकी रचनाओं में तत्कालीन बंगाल के सामाजिक जीवन की झलक मिलती है। शरतचंद्र भारत के सार्वकालिक सर्वाधिक लोकप्रिय तथा सर्वाधिक अनूदित लेखक हैं।
प्रस्तुत कहानी उनकी कृति "शरतचंद्र की प्रेरक कथाएँ" से ली गई है। "राजू का साहस" कहानी में कथाकार बताते हैं कि जीवन में कितना भी कठिन समय आ जाए परंतु अपना साहस कभी नहीं खोना चाहिए। साथ ही जीवन में प्रत्येक व्यक्ति की मदद करनी चाहिए। स्वयं के भीतर भय को पैदा करके मनुष्य कभी सफलता नहीं पा सकता और निर्भीक होकर हर एक काम करने से मनुष्य कठिन परिस्थितियों में  भी विजयी होता है। कहानी में यह भी देखने को मिलता है कि जब घर के सदस्य वृद्ध हो जाते हैं  तो उनके परिवार वालों को उनसे घृणा सी होने लगती है और वो उन पर बिल्कुल भी ध्यान न देकर स्वयं की दुनियाँ में मग्न रहते हैं। तो आइए सुनते हैं कहानी.............


#कहानी
#MotivationalStory
#Story




कहानी सुनने के लिए यहाँ क्लिक करें...


रविवार, 22 मार्च 2020

बघेली कविता || कुठुली मा वोट देखाय परी || कवि सैफुद्दीन सिद्दीकी "सैफू" ||

बघेली कविता ...

 कुठुली मा वोट देखाय परी ~ 

> कवि सैफुद्दीन सिद्दीकी "सैफू" जी

जब चुनाव का समय आता है नेताओं और कार्यकर्ताओं की भारी भीड़ गांवों में वोट मांगने और चुनाव का प्रचार - प्रसार करने निकलती हैं। उस भीड़ के अंतिम छोर में खड़ा गांव का वह गरीब भी रहता है जिसे एक वक्त की रोटी के लिए दिनभर खेतों में पसीना बहाना पड़ता है, जिसका सेठ के यहां पहले से ही हजारों का उधार है और अब वह भी उसे अन्न देने से इंकार कर देता है। अंत में उसे नेताओं के भाषण में ही भविष्य की रोटी, कपड़ा, घर, पानी, बिजली इत्यादि नज़र आने लगते हैं। वह भी उस प्रचार-प्रसार में अपना सर्वस्व देने लगता है। परंतु चुनाव होने के पश्चात, कुर्सी मिलने के बाद कोई नेता उस गरीब को देखना भी पसंद नहीं करता। इन सबको अपनी खूबसूरत सी कविता में ढालने का काम किया है स्व. सैफुद्दीन सिद्दीकी "सैफू" जी ने.... तो आइए सुनते है बघेली कविता "कुठुली मा वोट देखाय परी".....

_ प्रियांशु कुशवाहा "प्रिय"
मो. 9981153574, 7974514882

कविता सुनने के लिए टच करें।


रविवार, 23 फ़रवरी 2020

बघेली कहानी ~ दुलहिन के डोली ~ सैफुद्दीन सिद्दीकी "सैफू"

बघेली बोली के नामवर साहित्यकार श्रद्धेय सैफुद्दीन सिद्दीकी सैफू की बघेली कहानी-


                    [ दुलहिन के डोली ]

कै बजे होइगे फुलिया !रमदइला खटिया मा परे परे खखारिस औ पूछिस - फुलिया प इरा के सथरी खुरभुराइस औऔ उठके बइठ गय।कहैं लाग अबै तो सुकबा नहीं उआ,अइसन लागत है के आधी रात होई,पुन कहिस के काहे पुछत्या हया,कहूं जांय का त नहि आय।
    रमद इला कुछदार चुपान रहा फेर कहिस-" बासी रोटी ओटी त न धरे होइहे,आज ठकुराइन के काम से थोड़ी रसपताल भर जांय का रहा है।न जानी केत्तीदार पहुंचब,सांझ त होइन जई,डांकदर साहेब का चिट्ठी देब,फेर जब उनखर तार लागी आबत रहिहैं,पै हम त काल्है लउट पाउब।

फुलिया चट्ट पट्ट उठी,औरचुल्हबा मा आगी सुलगाय के चार ठे अंगाकर बनाय दिहिस,आलू भूंजिस,औ नोन मिरचा धइके एक फटही अग उछी मा बांधके लै आयी।

रमदइला लाठी मुरेठी औ रोटी कड पुटकी लइके चल दिहिस,रहै कुछ भिंसारै पै अंधियार रहै।फुलिया घर बटोरिस फेर बासन माजै लाग।तलघे भिंसारौ होइगा।सुरिज उई आये,रख उनी का गोरुवा डहरै लागे।गांव के मनई खेतन कइती जांय आमै लागे।

सुरिज महराज माता के कोख मा  समायगे।धीरे धीरे अधियारी घुपै लाग,तबै इजुली बिजुली कुछू नहीं रही,कोऊ आगी बार के उंजियार कर लेय,कोऊ तेल के दिया जराय के ध ई लेबा करै।हां ठकुरन के घरमा औ टिर्रा बनिया के दुकान मा जरूर लालटेम जरत रही है।

फुलिया संझबाती मा सनकटइया लेस के थोरका अंजोर कइ दिहिस, पुन ओखे चुल्हवै के नेरे भर उजियार रहै,बांकी पूर घर अंधियारेन मा सकान रहै।

परोस केर महरनियां काकी दुआरे मा ठाढ़ होइके नेरिआंय लाग- ओ फुलया भुजी!! चलते हा,आज पण्डितन के मड़बा आय,कुछ बियाह उआह गाय अई।फुलिया बहिरे निकरी औ कहिस के चलित हन परोसिन,थोड़का दूसर धोतिया तो बलद लेई।देखत्या नहीं भोगै भोगा है। का करै बिचारी,एकठे धोतिया कुछ नीक हस रहै,रहै तो ठेगरहाई,पै ओढ़ना कुछ नीक रहै।ओहिन का पहिर के तयार होइगै पुसाग बनउबै करै तो काहे के माथे बनबै,सगली उमिर ठकुराइन दयामंत रहीं हैं तो कबहूं तिथ त्युहार अटही फटही धोतिया दइ देबा करैं,ओहिन का फुलिया जोगे जोगे पहिरबा करै तो मइकेवाली लाखे के कंठी गरे मां बांध के हरी घरी फुटहा अइना देखा करै।

ठठाठट्ट मनई भरा देखाय,पंडित बाबा के दुआरे मा ।खासा सरउती चरचराय रही तै,गाँव भर के मेहरिया बियाह गामैं मा टिकी रहैं।

घुरबा ठइयां फुलिया औ महरनिया चुपारे बइठ गई और ओहिन ठांय से सब रजा मजा लेंय लागीं।कोऊ बइठऊं भर का नहीं पूछिस,पूछै कइसन तबै मनई बहुत छूत मनबा करै।कोल कहार त बिचारे कुंइयन से पानी तक नहीं भरैं पावत रहें,नदिया तलाब मा त ई आपन घटबै अलग अलग बनाय लेत रहे।पढ़ेव लिखे नहीं रहत रहे,एसे कउनौ मेर के बतकहाबौ नहीं कर सकत रहे।सब मान अपमान चुपारे सहि लेबा करैं।

फुलिया कुछ दार त बइठ रही,फेर कहै लाग - "चला परोसिन घरे चली,का भूतन अस बइठ हया,बिटिऔ भर का त नहीं देखे का पायन,घुरबा मा बइठे बइठे जिउ उकरीहिन आइगा।सब मन ई अपनेन हाव भाव मा बिल्लियान हें।हमहीं तुमही पुछइयौ को है।

सन्चै दूनौ उठी अउर अपने घर कइत चल दिहिन।फुलिया त अपने घरेन मा परेन परे बियाह गामै लाग,औ अपने काजे के सुधि कइ कइ टेघरी जाय।ओही लागै कि जाना हमरै बियाह होइ रहा है।ढोलकी बाज रही है कोलदहकी होइ रही है। अंगना मा भात केर हाड़ा चढ़ा है,दार अधचुरी होइगै ही,अब बरात अउतै होई,नेउतहन्नी चारौ कइत मेड़राय रही है।अगना मा  मगरोहन गड़ा है।बिचारी सुध करै औ मनै मन मगन होइ जाय।सोचतै सोचत सोइगै,सकारे जब खूब सुरिज चढ़ि आबा तब ओखर नीद खुली।

दुपहर के रमदइला लउटि आबा,पहिले ठकुराइन के बखरी गा फेर आयके भुइन मा पसर रहा।

फुलिया माठा और भगर रांधे रहै,परुस के लय आई औ फुटही लोटिया मा पानी अंउजिके धइ दिहिस।

रमदइला थोड़ थोड़ खाइस फेर कहैं लाग के फुलिया ओढ़ै का दइदे,जाड़ हस लागत है।जनात है कि बोखार चढ़ि अई।फुलिया फटहा धूसा लइके धई दिन्हिस औ कहै लाग के गली घाट के थकबाह होई,काल्ह से तौ हीठत आह्या,भला मनई के एतना बड़ा जिउ चार ठे रोटी मा दुई दिन टंगा रहत है,औ बइठ के गोड़ दबामै लाग।रमदइला के जिउ लरमानै रहै।एसे बखरिउ नहीं गा,घरै मा परा रहबा

आज पंडितन के घर मा बरात अई,दुआरे मा खूब सजनई कीनगै ही,सांझै से नगरिया सहनइया बाजै लागी हैं,सगला गाँव के भइपहा एक्का दुक्का आमैं लागे है।मेहेरिया सोहारी बेलती हैं।अहिर काका तरकारी काटै मा टिका है। गैस बत्तिन के सफाई पोछाई होय रही है। एक्का दुक्का लेसरतिउ जाती है।

भउजी ! ओ फुलिया भउजी!!चल बरात देखैं न चलिहे दुलहा का त देख ल्याब कउन मेर के है।

फुलिया दुअरा मां झांकिस औ कहिस के घरमा कइयक रोज से लरमान हें उनहीं अकेले छाड़िके कहां जई परोसिन, रमदइला बोल पड़ा-" काहे जाते नहीं आहे,हम परे न रहब हां एतना जरूर किहे दुअरा मा टटिया ओढ़काय दीन्हे कहौं कूकुर बिलार न घुसै।

परोसिन तुहूं देख लिहा की नहीं-"जना पंडित बाबा के पहुना लांगड़ है।"महरनिया मुहूं बर्रायके कहैं लाग- "एक कई भुजवा तेली,एक क ई राजा भुज्ज" क इसा जोड़ी बइठाइन ही।लागत है पंडित बाबा के बिटिया के करमै नसान रहा है।

हां बहिनी,ई बड़कवा घर दुआर औ डेरा साज तो देखतै हया,इनही अउर का करै का है।या लड़िकौ क उनौ पुरानिक केर होई।देखा न चढ़ाव मा सोनेन सोनेन के गहना लाये हें।

तलघे मेहरिया दुआर चार मा मूसर मथानी भमाय के भीतर चली गयीं।बरात जनमासे गै देखनहरिउ लउट लउट के अपने अपने घर चली आयीं।

सकारे रमदइला उठके दुआरे मा बइठ रहै।ओखर जिउ लरमानै रहै,जाड़न के मारे खूब धूसा लपेटे रहै।दबाई सबाई कुछू रहबै न करै परा रहबा करै दइउ के भरोसे।

फुलिया कुन कुन पानी औ मुखारी लै आयके धई दिहिस,रमदइला मुखारी करिस औ धूसा मा मुंह पोछि लिहिस।

ठाकुर मूरत सिंह, रमदइला के दुआरे मा ठाढ़ भे,बहुत सोचान रहैं,कहै लागे कि रमदइला तैं ठण्डी खाय गये हा,तोरे बेरामी से त हमार हाथै गोड़ ढील होइगे है। आज चले जये भैरम बैद के नेरे नारी देखाय दिहे औ दबाई लै अये,बताय दिहे कि ठाकुर पठइन ही।

हां एक बात बताव रमदिला,के पंडित बाबा के बरात आयी है,बड़ा खुरखुंद कये लाग हें,उनखर कहनूत है कि बिटिया सयान ही,हम‌ साथै बिदा कराउब,पंडित बाबा बिदा करै का कहि दिहिन ही,पै इहा कोहू न नहीं बताइन,आज सकारे हमसे कहिन के डोली बाले मनई नहीं मिलैं ।एक जन सरमनिया भर मिला है।

अब तहिन‌ बताव गांव घरके बात आय,म्याछा त सबै केर जांय का है,अब कइसन कीन जाय।

रमदइला कहिस- सुनी मालिक एई पंडित फुलिया का कुंइयां मा पानी नहीं भरैं दिहिन एक रोज तलाये मा नहात रही है त गारी देत रहे हैं कहैं छीटा मार दिहे है ,भला एतना उछिन्न करै का होत है? उनखे बिटिया के म्याना लई जाब ता छुतिहा न होई जिहैं।

ठाकुर कहैं लागे,देख रमदइला गांव घरेन मा सब होतै रहत है।पुरान बात के गठरी नहीं गठिआमै का होय।आज बड़मंसी के बात सामने है।जो हम तुम सब कोऊ इहै मेर कहैं लागी तो अन्तै बाले का कहिहै।

अबै सब जन इहै जानत हें कि ठकुरन के रहत गाँव केर मरजादा न जांय पाई।

फुलिया भितरे से बोल परी- उई लहौं न जइहैं किसान,आज चार रोज से खाइन पीन नहीं ,जिउ नहीं चलै ,कोहू आने का हेर लेई,हम आपन देखी धौउ पंडित के।

ठाकुर कहैं लगे,फुलिया भउजी एतने दिन तक हमार लोन पानी खाये हा,आज थोड़ का काम अढ़ै दिहेन तो नाहीं करते हा।भला अइसय चाही,बिटिया बाली बात ही नहत त हम कुछू कहबै न करित।

रमदइला कहिस - ठीक है मालिक,हम अपना के नोन पानी चुकाय देब,रमदइला के रहत अपना के बात खाली न परैं पायी।हम अपना के हुकुम न टारब,चाहे जउन कुछू होइ जाय।

सकारे बिदा होइगै,बिटिया खूब गोहार मार के रोइस ,गाँव भरे के मेहेरिया भेट करिन,ब्युहर,ठाकुर,ठकुराइन,सब रोइन।रमदइला अउर सरमनिया बिटिया का डोली मा बइठाय के चल दिहिन ,गाँव निकरत भर बिटिया रोउतै गै।

दुसरे रोज बिटिया का पहुचायके रमदइला घरे आयगा।दुलहिन बाली डोली दुआरे मा परी रहै,तिरपट बोखार चढ़ी रहै,छाती मा पीरा रहै,फुलिया दबाये रहै,बलधै के जाड़ पटांय जाय,पै दलकी काहे का धिमाय,बोखार त बोखारै आय।

रात के रमदइला बर्राय उठै,फुलिया डोली पंडित जी के घरै पठै दिहे,ठकुरन से कहि दिहे कि उनखर लोन पानी रमदइला चुकाय दिहिस अब ओरहन न देहै।तै रोये गाये न,अब हम जाब लेबउवा आयगे है।

फुलिया हरी घरी उठिके हांथ गोड़ मूदै ओखे आखी से टप्प टप्प आंसू बहैं,रात भर जाग के पार कई दिहिस ।

बड़े सकारे उठी,घर झारैं बटोरै लाग,सुरिज उइ आंये,सोचिस कि उठायके बइठाय देई,पै रमदइला अब नहीं रहा,ओखर मरी देह भर पइरा मा पड़ी रहै।

फुलिया का सगली धरती अंधियार देखांय लाग,कोऊ आगे  पीछे नहीं रहिगा।गोहार मारिके रोमै लाग,सगला गांव ससान आबै,जे जइसन सुनै तइसै धउरत आबै,रमदइला का डेहरी के बाहर पराय दिहिन ।

ठाकुर ठकुराइन पंडित बाबा सबै घायके आये,ठाकुर तो खूब रोइन,ठकुराइन अपने लगुआ का छुपकाये रहै।

सब जन देखिब,एक क ई दुलहिन के छूंछ डोली परी रहै,औ दुसरे कई रमदइला के डोली।फुलिया के सगला सुक्ख बटोरिके लये चली जात रहै।

~  सैफुद्दीन सिद्दीकी सैफू जी 



रविवार, 9 फ़रवरी 2020

बघेली कविता || मसका खीर || कवि सैफुद्दीन "सैफू" जी ||


बघेली कविता ~
 [ मसका खीर ]

महंगाई और भ्रष्टाचार में जी रहे आम आदमी का जीवन कौन कौन सी कठिन परिस्थितियों से गुज़रता है...सुनिए #सैफू जी की बघेली व्यंग्य कविता में... "मसका खीर"

पानी मिलाय के दूध, बिकै अब गली गली,
दादा य भउसा देख, भला कै रोज चली।
दादू य मसका खीर, चली जै रोज चली।।
~ सैफू जी

कविता सुनने के लिए इस लिंक को टच करें 👉 बघेली कविता ~ मसका खीर ~ कवि सैफू जी 👈

शनिवार, 18 जनवरी 2020

बघेली कविता || फूहर मेहरिया || कवि सैफुद्दीन सैफू जी ||

बघेली के महाकवि सैफुद्दीन सिद्दीकी सैफू जी की एक हास्य कविता-

( फूहर मेहरिया )

खुभुर खुभुर जींगर खजुआमै,जुआं लीख झहरांय‌।
ओढ़ना लत्ता रहैं कीट अस,चीलर खूब देखांय।।

कजरौटा भर काजर आंजे,मुह देखाय जस पइना।
टिकुली झरका कंठी बांधे,साजे फुटहा अइना।।

सोबत मा लारौ चिचुआमै,छिकर रजाई पोछैं।
रोय धोयके जेमन बनमै,ताहेउ सान निपोचैं।।

भात बनामै अरा रोट हस,दार अलोन देखाय।
तरकारी मा मिरचै मिरचा,खाय अउर सिसिआय।।

पोछै नाक पिसानौ माड़ै,लीवर रहैं बहाये।
भीतर लुकके करै कलेबा,पहिलेन बिना नहाये।।

हांथ गोड़ मा मइल जमा है,धोबत मा सकुचांय।
सास सिखापन देय कुछू त,दउरै खाव चबाव।।

मन्सेरू का गारी देहै,रोज काठ ब इठामै।
अधिक जो गुस्सा भई कबौ त,चिटका घाल जरामैं।।

टोला मा जब बागै जइहैं,हीठैं धूर उड़ाबत।
कुआ तलाब बिदुरखी मारैं,रहै रात दिन गाबत।।

छीकैं त लड़िका जंजकामै,हंसैं कुकुरबा भोकै‌।
बात करै त जोर जोर से,टोलौ बाले टोकैं।।

होय घोड़चढ़ा ओहू भर का,कबहूं नहीं डेरांय।
झगर होय त बात बात मा,मन इन से टेड़ुआंय।।

सबै कुलक्षन बाढ़ी बेढ़न,ई फूहर कहबामै।
"सैफू" भाखैं ई मेहरारू उढरी जाय औ गामै।।

 रचनाकार ~ कवि श्री सैफुद्दीन सिद्दीकी जी।


( कविता सुनने के लिए नीचे दी हुई लिंक में टच करें )
👇👇👇👇👇👇👇👇👇

बघेली कविता || फूहर मेहरिया || कवि सैफुद्दीन सिद्दीकी जी ||






शुक्रवार, 17 जनवरी 2020

बघेली कविता || गमईन के घर || कवि सैफुद्दीन सैफू जी


अगर आप #गाँव में रहे होगें य आपने स्वयं भी अपने भीतर गाँव को जिया होगा तो बेश़क आप इन दृश्यों से परिचित होंगे जहाँ पत्थर और मिट्टी की बनी दिवालें, ओरमानी में छाए हुए खपड़ा,खटिया में कथरी बिछाकर आराम करते हुए लोग,कुठुली पेउला के इर्द गिर्द चूहों के बिल, जाड़े के मौसम में सुबह-सुबह पइरा जला कर आग तापते ग्रामीण और भी बहुत कुछ...
इन सबको कविता में ढालने का काम #बघेली के महाकवि सैफुद्दीन सिद्दीकी "सैफू" जी ने किया... तो आइए सुनते हैं सैफू" जी की #बघेली_कविता  #गमईंन_के_घर.....

बघेली कविता || गमईं के घर || कवि सैफूद्दीन "सैफू" जी || GAMAI KE GHAR

( बघेली कविता सुनने के लिए नीचे दी हुई लिंक टच करें )
👇👇👇👇👇👇👇👇

बघेली कविता || गमईं के घर || कवि सैफुद्दीन सिद्दीकी सैफू जी ||






अपने विंध्य के गांव

बघेली कविता  अपने विंध्य के गांव भाई चारा साहुत बिरबा, अपनापन के भाव। केतने सुंदर केतने निकहे अपने विंध्य के गांव। छाधी खपड़ा माटी के घर,सुं...