कविता ...
( चुप रहो ! यहाँ सब शांत हैं ...... )
यह वक्त ही कुछ ऐसा हो गया है कि सबको सबसे घृणा, ईर्ष्या, नफ़रत सी होने लगी है। एक व्यक्ति स्वयं को सर्वश्रेष्ठ साबित करने के लिए कुछ भी करने पर उतारू हो रहा है। भरी भीड़ में भी सब अकेले ही हैं। सत्ता के गलियारे तक अगर कोई बात चली जाए तो वहाँ सत्य बोलना मौत के साथ खेल खेलेने जैसा है। इसलिए हर जगह सत्य की भाषा और सत्य बोलने वालों की ज़बान बंद कर दी गई है। सरकार के पास गरीबों के खाने से लेकर उनके आवास तक की योजना महज़ कागज़ में ही सुरक्षित है। वो सब कागज़ी योजनाएं भी धीरे धीरे कूड़ेदान में डाली जा रही हैं।
लोगों के बदलते हुए व्यवहार, चरित्र से लेकर सियासत तक की अंधी व्यवस्था को सुनिए इस कविता में......
( चुप रहो! यहाँ सब शांत हैं... )
~ लेखन एवं प्रस्तुति
( कवि प्रियांशु कुशवाहा "प्रिय" )
मों. 9981153574 , 7974514882
~ लेखन एवं प्रस्तुति
( कवि प्रियांशु कुशवाहा "प्रिय" )
मों. 9981153574 , 7974514882
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