गीत
मैं तुम्हारा मीत बनना चाहता
था,
पर तुम्हारे प्यार ने सब मार
डाला ।
शब्द मेरे थे तुम्हारे और
कुछ भी शेष न था,
नेह की बगिया हरी थी, तब कहीं भी द्वेष न था।
था हमारे और तुम्हारे बीच इक संबंध
ऐसा,
क्यारियों में रातरानी की महकती
गंध जैसा।
मैं कहीं भी रोशनी बनकर चमकता,
पर किसी अंधियार ने सब मार डाला।
मैं तुम्हारा मीत बनना....................
स्वप्न के टूटे हुए हिस्से के
जैसा हो गया हूँ,
भूलकर मैं अनकहे किस्से के जैसा
हो गया हूँ।
भूलना कितना कठिन है, जानकर यह ज्ञात होगा,
भूल जाओगे स्वयं को, तब बहुत आघात होगा।
गंतव्य तक चलने का हम सपना लिए
थे,
प्रारंभ के ही द्वार ने सब मार डाला।
मैं तुम्हारा मीत बनना.................
✒ प्रियांशु 'प्रिय'
सतना ( म. प्र. )
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें