शुक्रवार, 23 अप्रैल 2021

राष्ट्रीय चेतना के अमर स्वर महाकवि दिनकर - ( प्रियांशु कुशवाहा 'प्रिय')

राष्ट्रीय चेतना के अमर स्वर महाकवि दिनकर

©® प्रियांशु कुशवाहा “ प्रिय ”

आधुनिक युग में आज भी अगर ओज के अग्रणी कवियों की बात की जाए तो सर्वोच्च स्थान पर राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर ही उपस्थित होते हैं। राष्ट्रीयता को मुखर करने वाले अमर स्वर और भारतीय संस्कृति के शाश्वत गायक के रूप में भी दिनकर को जाना जाता है। भारत के लब्धप्रतिष्ठित कवि रामधारी सिंह दिनकर का जन्म 23 सितंबर 1908 को बिहार के बेंगुसराय जिले के सेमरियाँ गाँव में हुआ। राष्ट्रीय चेतना की अप्रतिम अलख बचपन से ही दिनकर के भीतर झलकती थी। दिनकर का शुरूआती जीवन बेहद ही संघर्षपूर्ण रहा। पिता कृषक थे और बड़े भाई बसंत भी पिता के साथ कृषि में साहचर्य कार्य किया करते थे। एक लंबी बीमारी की वजह से उनके पिता की मृत्यु हो गई। बचपन में ही दिनकर के सर से पिता का साया टूट जाने के कारण घर पर मानों आसमान ही टूट पड़ा। ऐसी कठिन और प्रतिकूल परिस्थिति में भी उनके बड़े भाई ने उन्हें पढ़ने के लिए कहाँ और वे स्वयं कृषि कार्य में लगे रहे। दिनकर की शिक्षा-दीक्षा उनके बड़े भाई और उनकी माँ ने ही की। बचपन से ही पढ़ाई में निपुण दिनकर रचनाशीलता और सर्जनात्मकता में भी प्रतिभा संपन्न थे। दिनकर ने प्राथमिक की पढ़ाई गाँव के ही प्राइमरी स्कूल में पूरी की। दिनकर ने पटना विश्वविद्यालय से इतिहास राजनीति विज्ञान में बी.ए. किया। उन दिनों देशभर में आजादी के लिए कई आंदोलन भी चल रहे थे। इन सबका उनके लेखन में खासा प्रभाव पड़ा। गुजरात के बारदोली सत्याग्रह के बाद दिनकर ने 20 वर्ष की उम्र में 10 गीत लिखे। सारे के सारे गीत विंध्यप्रदेश के रीवा से छपने वाली पत्रिका “छात्र सहोदर” में प्रकाशित हुए। स्नातक की परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद उन्होंने एक विद्यालय में अध्यापन कार्य भी किया। 55 रूपए मासिक वेतन के साथ दिनकर ने हेडमास्टर के पद पर एक हाईस्कूल में नौकरी की। मुजफ्फरपुर में हिंदी विभाग के विभागाध्यक्ष भी रहे। विभिन्न पदों में कार्य करते हुए दिनकर का लेखन जारी रहा। 1935 में उनका पहला काव्य संग्रह रेणुका प्रकाशित हुआ। जिसमें हिमालय, कविता की पुकार, पाटिलपुत्र की गंगा जैसी अनेक लोकप्रिय कविताएँ शामिल हैं। सरकारी पद में कार्यरत रहते हुए भी दिनकर ने अपने लेखन की राष्ट्रीय चेतना और काव्यधर्मिता को जीवित रखा। सरकार की तमाम अव्यवस्थाओं पर प्रश्न खड़ा करती हुई उन्होंने कई कविताएँ लिखी।

"सदियों की ठंडी-बुझी राख सुगबुगा उठीं,

मिट्टी सोने का ताज पहन इठलाती है,

सिंहासन खाली करो कि जनता आती है। "

उनपर सरकार विरोधी कविताएँ लिखने का आरोप भी लगा और इस कारण से भी उनके चार साल में 22 तबादले हुए। 1942 से 1945 के बीच उन्होंने युद्ध प्रचार विभाग में नौकरी भी की। सत्य के लिए हमेशा खड़े रहने वाले दिनकर अपनी प्रबल इच्छाशक्ति से राष्ट्र के प्रेम में अपनी कलम से अंधेरों को दूर कर रोशनाई फैलाते रहे। इसी बीच उनके कई काव्य संग्रह प्रकाशित हुए। हुंकार (1939) , रसवंती ( 1940), द्वंदगीत(1940) आदि।


यूँ तो दिनकर राष्ट्रीय चेतना के अमर स्वरों में गिने ही जाते हैं और उनकी सभी कृतियां साहित्य जगत में अपना विशेष स्थान रखती हैं। परंतु 1949 में प्रकाशित प्रबंध काव्य "कुरूक्षेत्र" और 1952 में प्रकाशित "रश्मिरथी" ने साहित्य और कविता के पाठकों के हृदय में एक अलग ही स्थान स्थापित किया।अपने प्रबंध काव्य कुरूक्षेत्र में दिनकर ने महाभारत में युद्ध की पृष्ठभूमि को केंद्र में रखकर रचनाएँ लिखी। इसमें युद्ध के भयावह दृश्य के साथ महाभारत काल में युधिष्ठिर और भीष्म पितामह के संवादों को समेट कर प्रस्तुत किया गया है। दिनकर के अनुसार केंद्रीय समस्या युद्ध है और जबतक मनुष्य मनुष्य के बीच विषमता है और एकरूपता का अभाव है तबतक युद्ध टालना असंभव है। इसे कुरूक्षेत्र में दिनकर लिखते हैं कि- 


"जबतक मनुज-मनुज का यह,

सुखभाग नहीं सम होगा।

शमित न होगा कोलाहल,

संघर्ष नहीं कम होगा। "


कुरूक्षेत्र की रचना कर लेने के बाद दिनकर ने महाभारत की पृष्ठभूमि से ही एक और अमर कृति की रचना की। कवि मैथिलीशरण गुप्त जी से प्रेरणा लेकर लिखी गई "रश्मिरथी" आज भी दिनकर के पाठकों को कंठस्थ है। राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त ने ज्यादातर उन चरित्रों को केंद्र में रखकर रचनाएँ लिखीं जो कहीं-न-कहीं उपेक्षा का शिकार हुए। उदाहरण के तौर पर गुप्त जी द्वारा रचित महाकाव्य "साकेत" जो कि रामायण में लक्ष्मण की पत्नी उर्मिला को केंद्र में रखकर लिखा गया है। ठीक इसी परंपरा को जीवित रखते हुए दिनकर जी ने महाभारत के पात्र कर्ण को केंद्र में रखकर रश्मिरथी की रचना की। कहीं न कहीं कर्ण भी साहित्य और सामाजिक रूप से उपेक्षित पात्र रहा। दिनकर की रश्मिरथी में एक आवेग और आवेश के साथ-साथ राष्ट्रीय चेतना का भाव भी झलकता है। कुरूक्षेत्र की रचना कर लेने के बाद दिनकर ने रश्मिरथी का लेखन शुरू किया और वे स्वयं कहते हैं कि- " मुझमें यह भाव जगा कि मैं कोई ऐसा काव्य भी लिखूँ जिसमें केवल विचारोत्तेजकता ही नहीं, कुछ कथा संवाद और वर्णन का भी माहात्म्य हो "। इस प्रबंध काव्य में दिनकर ने कर्ण की चारित्रिक विशेषताओं के साथ साथ संवेदनाओं को भी रखा है। महाभारत काल की समस्याओं को आधुनिक दृष्टि में समाहित करके पाठकों के समक्ष रखना साथ ही मुख्य समस्याएँ जो कि योग्यता और गुणों को महत्त्व ना देकर वंश और जाति को महत्व दे रही थी, उनका भी इस कृति में वर्णन किया गया है। दिनकर लिखते हैं कि-


" ऊँच नीच का भेद न माने वही श्रेष्ठ ज्ञानी है"

"दया धर्म जिसमें हो, सबसे वही पूज्य प्राणी है"

"क्षत्रिय वही भरी हो जिसमें निर्भयता की आग"

"सबसे श्रेष्ठ वही ब्राह्मण है,हो जिसमें तप त्याग"


कर्ण को विषय बनाकर जाति व्यवस्था के खिलाफ और दलितों का समर्थन करती हुई दलित चेतना की पंक्तियां भी दिनकर की इस कृति में पढ़ने को मिलती है। कर्ण की चारित्रिक विशेषता को उद्घाटित करते हुए दिनकर ने रश्मिरथी में यह भी बताया है कि कर्ण का चरित्र पौरूष और स्वाभिमान से युक्त था। जो किसी भी शक्ति से दबने वाला नहीं था। वह अपने शरीर से समरशील योद्धा था। जिसका व्यक्तित्व मन और हृदय से भावुक तो था ही साथ ही उसका स्वभाव दानवीर प्रवृत्ति का था। कर्ण को महाभारत में दानवीर कर्ण के नाम से भी जाना जाता है। कर्ण के चरित्र की विशेषता बताते हुए दिनकर कहते हैं - 


" तन के समरशूर, मन से भावुक, स्वभाव से दानी"

" जाति गोत्र का नहीं, शील का,पौरूष का अभिमानी। "


दिनकर की ऐसी अनेक अद्वितीय काव्य कृतियाँ प्रकाशित हुई और देश ही नहीं अपितु विश्वभर में अपनी लोकप्रियता का पताका फहराया। दिनकर को कई भाषाओं का ज्ञान भी था और भारतीय संस्कृति के गहन चिंतन के बाद उन्होंने 1956 में प्रकाशित 'संस्कृति के चार अध्याय' की रचना की। जिसकी भूमिका पूर्व प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू ने लिखी। इस कृति के लिए उन्हें साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया। शृंगार की कविताओं से लबरेज "रसवंती'' और "उर्वशी" ( इस कृति के लिए दिनकर जी को ज्ञानपीठ पुरस्कार दिया गया ) के साथ साथ चीनी आक्रमण के प्रतिशोध में लिखा गया खंडकाव्य "परशुराम की प्रतीक्षा" आज भी साहित्य के पाठकों को आज भी प्रिय है। दिनकर की गद्य विधा में भी कई कृतियाँ प्रकाशित हुईं। जब जब देश में सरकारी व्यवस्था मनुष्यता को तोड़ने का प्रयास करेगी तब तब दिनकर की ओजस्वी कविताएँ उनके मुँह पर करारा प्रहार करेंगी। आज महाकवि रामधारी सिंह दिनकर जी की पुण्यतिथि पर सादर नमन्।


©® प्रियांशु कुशवाहा 'प्रिय'

   

शनिवार, 13 मार्च 2021

कहानी - ( दयाराम का दुख ) - प्रियांशु कुशवाहा "प्रिय"

कहानी__

( दयाराम का दुख )

दयाराम काका को घर आते आते बड़ी देर हो गई थी। कमली काकी द्वार पर खड़े-खड़े काफ़ी देर से काका की गली देख रही थी। 

" बड़ी देर कर थी आज " कमली काकी ने कहा।

" अरे ! क्या बताएँ ? अपने खेत का चारा तो चरवाहे ही ले गए, इसीलिए आज काफ़ी दूर तक जाना पड़ा "

घर में दो गायें थी उनके लिए हर रोज चारा लेने काका को ही जाना पड़ता था। 

" चलो जाओ हाथ-पाँव धो लो, और खाना खा लो "

ईश्वर की कृपा से काका के पास खूब ज़मीन थी। ज्यादा पढ़े लिखे नहीं थे लेकिन अगर गाँव की चौपाल में बैठ जाते थे तो बड़े से बड़े विषयों पर घंटों तक संवाद चलता रहता था।

काका के पास ज़मीन और पैसा तो खूब था ही उसके साथ साथ पूरे गाँव में उनका लोगों के प्रति प्रेम भरा व्यवहार भी उन्हें सबसे अलग बनाता था। अक्सर कई बार देखा जाता है कि खूब धन-दौलत वाले आदमी के भीतर अहंकार जन्म लेने लगता है। कई बार तो लोगों के प्रति घृणा और ईर्ष्या भी आ जाती है। लेकिन काका ऐसे बिल्कुल न थे। अपने घर का पूरा काम वो स्वयं ही करते थे। किसी भी तरह के काम के लिए काका को कभी किसी को परेशान करने की आदत न थी।

रोज़ की ही तरह दयाराम काका तड़के 5 बजे उठकर गायों के लिए चारा लेने निकल गए। उधर कमली काकी भी अपने तीनों बच्चों को पढ़ने के लिए उठाने लगी। काका हमेशा कहते थे कि सुबह का पढ़ा कभी नहीं भूलता। दोनों की इच्छा थी कि उनके बच्चे भी बड़े होकर अफ़सर बने।

दुर्भाग्य से तीनों का मन पढ़ाई में बिल्कुल भी न लगता था। बड़ा बेटा सुरेश घर से स्कूल के लिए निकलता तो था लेकिन रास्ते में उसके कुछ दोस्त मिल जाते तो वहीं से मेला घूमने निकल जाता य कभी कभी वहीं सबके साथ मिलकर कंचे खेलने लगता। छोटा बेटा मुन्ना भी सुरेश से कम नहीं था। वो अपने स्कूल में सबसे ज्यादा अनुशासनहीन विद्यार्थियों में जाना जाता था। दयाराम काका के पास उसे लेकर आए दिन स्कूल से शिकायतें आती रहती थी। दोनों बेटों की इन आदतों से काका खूब परेशान रहा करते थे। वो दोनों न तो पढ़ाई करते थे और न ही काका के साथ खेतीबाड़ी में हाथ बटाते थे। रानी सबसे छोटी और इकलौती बेटी थी। घर की लाडली बेटी तो थी ही साथ ही काका और काकी उसकी हर एक मनचाही चीज़ उसे लाकर देते थे। दोनों की इच्छा थी कि रानी भी खूब पढ़ लिख ले जिससे उसका बड़े घर में बियाह हो जाए। लेकिन रानी भी अपनी सखियों के साथ खेल में ही डूबी रहती थी। पढ़ाई से ज्यादा रानी का मन घर की साज-सज्जा, चित्र बनाना, मेंहदी इत्यादि में खूब लगता था। रानी अगर सखियों के साथ न दिखे तो काकी समझ जाती थी कि वो कहीं और नहीं बस भीतर बैठकर कोई न कोई चित्र ही बना रही होगी। सुरेश और मुन्ना काका से बहुत डरते थे। उनकी डाँट भर से दोनों रोने लगते थे। दिन भर दोनों भाई भले ही कहीं भी घूमते रहें लेकिन शाम 5 बजते घर आ ही जाते थे। 

उस दिन शाम के 7 बज चुके थे। काका अभी चारा लेकर घर न आए थे। काकी को हल्का बुखार था। रानी माथे पे रूमाल की पट्टी रखकर गरम देह को ठंडा कर रही थी। सुरेश झूरन बाई को बुलाने गया था। झूरन बाई पूरे गाँव में झाड़-फूक के लिए जानी जाती थी। उन दिनों गाँवों में डाक्टरी परामर्श झूरन बाई के कहने पर ही लिया जाता था। 

थोड़ी देर बाद झूरन बाई आयी और अपने मंत्र-तंत्र से कमली का इलाज़ करने लगी। 

" जा एक नारियल और तीन अगरबत्ती ले आ " झूरन ने अपनी साड़ी के कोने में बंधे पैसे निकालकर सुरेश को देते हुए कहा। 

रानी कमली काकी के माथे पर लगातार ठंडे पानी की पट्टी कर रही थी। उससे किसी भी तरह का कोई आराम नहीं हो रहा था। काकी की तबीयत धीरे धीरे और नाजुक होती जा रही थी। सुरेश नारियल और अगरबत्ती लेकर आया। ठीक उसी वक्त दयाराम काका भी चारा लेकर घर आए थे। 

काका झाड़फूक इत्यादि पर ज़रा भी भरोसा न करते थे। लेकिन फिर भी गाँव वालों के कहने पर वो कुछ बोल न सके और न चाहते हुए भी उन्हें झूरन बाई के तमाम तरह के अंधविश्ववास में आकर तंत्र-मंत्र से ही ठीक होने तक रूकना पड़ा। अंततः झूरन बाई के तमाम तरह के प्रयासों के बाद भी काकी को आराम न हुआ और सभी ने तय किया कि अब शहर चलना होगा और वहीं इलाज़ करवाना पड़ेगा। काकी की तबीयत हर दो तीन साल में ऐसे ही ख़राब हो जाया करती थी उसका इलाज़ शहर के अस्पताल में ही होता था। काकी को शहर के अस्पताल लाया गया और यहाँ न जाने कितनी जाचें हुई। काकी की दवाई में दयाराम को हर दो तीन साल में अपनी ज़मीन का कुछ हिस्सा बेचना ही पड़ जाता था। आखिरकार ज़मीन बेचकर ही सही लेकिन काकी का इलाज़ शहर के अस्पताल में तो हुआ और वो पूरी तरह स्वस्थ भी हो गई।

धीरे धीरे दोनों बेटे और छोटी बेटी तीनों बड़े हो गए। आठवीं - नवमीं तक की स्कूली शिक्षा पाकर अक्षर ज्ञान तो हो ही गया। काकी की तबीयत भी सही न रहती थी। काका की उम्र भी धीरे धीरे बुढ़ापे की ओर बढ़ रही थी। उन्हें लगता था किसी तरह रानी का बियाह कर दें तो चिंतामुक्त हो जाएँ। कुछ सालों बाद सुरेश और मुन्ना को भी घर गृहस्थी में बाँध देंगे।

रानी ज्यादा पढ़ी लिखी न थी इसीलिए लड़का भी ज्यादा पढ़ा लिखा न मिलता। काका कई ज़गह रिश्ते देखकर आए थे। उन्हें राजाराम का लड़का पसंद आया था। शहर में रहकर किसी कारखानें में नौकरी करता था। उन दिनों गाँवों में ये माना जाता था कि शहर में नौकरी करने वाला लड़का किसी बड़े आदमी के जैसा होता है, गाँवों में क्या है ? दिन-रात खेती किसानी करो और खूब मेहनत के बाद भी अगर मौसम ने अपनी कुदृष्टि फसलों पर डाल दी तो कुछ भी हाथ न आए। अंततोगत्वा राजाराम के छोटे बेटे माधव के साथ रानी का विवाह तय हुआ। दहेज़ की कुछ माँग के अनुसार दयाराम काका ने अपनी ज़मीन का कुछ हिस्सा उसके नाम भी कर दिया। 

दयाराम काका और कमली काकी का स्वास्थ्य अब ठीक न रहता था। उम्र भी ज्यादा हो रही थी। शादी के कुछ महीनों बाद कमली काकी की तबीयत फिर से ख़राब हो गई। खटिया पर लेटी काकी की बस साँसे चल रही थी। अब माथे पर ठंडी पट्टी करने वाली रानी न थी। झूरन बाई को बुलाने वाला सुरेश भी अपने काम पर गया था। मुन्ना भी किसी फैक्ट्री में मजदूरी करने लगा था। दयाराम काका रोज की ही तरह चारा लेने गए हुए थे। पड़ोस में रहने वाली रानी की सहेली फुलिया कमली काकी के पास थी। फुलिया की माँ का देहांत बचपन में ही हो गया था इसलिए कमली काकी को वो अपनी माँ जैसा ही मानती थी। फुलिया तुरंत ही झूरन बाई को बुलाकर लाई। झूरन अपने तमाम तरह के झाड़ फूक आज़मा रही थी। लेकिन काकी की तबीयत बहुत ही ज्यादा बिगड़ चुकी थी। कुछ देर बाद काका आए और उन्होंने शहर जाने की तैयारी बनाई। काकी को अब अस्पताल ले जाना बहुत ज़रूरी हो गया था। उसे गाँवों के कुछ लोंगों की मदद से बैलगाड़ी में लिटाया गया और साथ में एक औरत का होना भी ज़रूरी था इसलिए झूरन बाई को भी चलने को कहाँ गया। गाँव से शहर का अस्पताल 30-35 किलोमीटर दूर था। बैलगाड़ी से जाने पर एक से दो घंटे तो लग ही जाते थे। काकी के शरीर में सिर्फ हल्की हल्की साँसें चल रहीं थी। वो न किसी से कुछ बातें कर पा रही थी और न ही आँखे खोल रही थी। घर से कुछ दूर निकले ही थे कि झूरन ने काकी के चहरे की ओर देखा, जो बिल्कुल सिकुड़ सा गया था। देह डंठी पड़ चुकी थी। हाथ पैर की ऊँगलियाँ ढीली पड़ गईं थी। शरीर में किसी भी तरह की हलचल नहीं हो रही थी। झूरन समझ गई थी कि काकी अब परलोक सिधार गई है। लेकिन झूरन ने किसी को कुछ नहीं बताया। दस किलोमीटर आगे जाने के बाद गाड़ी रूकवा कर झूरन ने कहा- " काका ! अब काकी का बच पाना बहुत मुश्किल है। अस्पताल जाते जाते ही दम तोड़ देगी।" 

"ऐसा क्यों कह रही है झूरन ? तूने झाड़फूक से ज्यादा कुछ जाना है कभी" दयाराम काका ने गुस्से में कहा।

और फिर अचानक काकी की तरफ देखकर दयाराम की आँखों में आँसू आ गए। शायद वो भी जान गए थे कि उनकी पत्नी अब उन्हें छोड़कर जा चुकी है। पत्नी को खोने का दुख हृदय से प्रेम की तार टूट जाने जैसे होता है। दुनियाँ के हर तरह के सुख दुख बाँटने वाली और बिना कुछ बखान किए ही हर तरह की भावनाओं को स्वतः ही समझने वाली पत्नी ही होती है। जिसका साया अब दयाराम से बहुत दूर जा चुका था। सभी की मंजूरी पर बैलगाड़ी को वापस गाँव की ओर लाया गया। सुरेश और मुन्ना तबतक अपने घर आ गए थे। द्वार पर पहुँचते ही मुन्ना और सुरेश माँ के पास पहुँचे और तड़प तड़प कर रोने लगे। माँ का मृत शरीर दोंनों भाईयों से छोड़ा नहीं जा रहा था। किसी तरह से गाँव वालों ने दोनों बेटों को मनाया और संबंल बाँधा। बेटी रानी को भी सूचना दी गई। वो भी माधव के साथ मायके पहुँची। पूरे परिवार में मातम छाया हुआ था। काकी का अंतिम संस्कार किया गया। दयाराम काका उस रिक्त स्थान की पूर्ति कभी न कर पाए।

कुछ वर्षों बाद सुरेश और मुन्ना का भी विवाह हो गया। घर के तमाम तरह के सुख, ज़मीन - ज़ायदाद, धन-दौलत होने के साथ दोनों बेटों और रानी की शादी और फिर काकी के इलाज़ के बाद उनके हिस्से अब कुछ न बचा था। दोनों भाईयों में आपसी मतभेद बना ही रहता था। दयाराम काका को बुढ़ापे में उनकी सेवा करने वाला कोई न था। सुबह की रोटी अगर मुन्ना दे देता तो शाम के खाना का तय नहीं रहता कि सुरेश के यहाँ मिलेगा भी य नहीं।

उम्र भी ज्यादा हो गई थी और अक्सर बीमार रहने के कारण काका अब बहुत कम ही चारा लेने जाया करते थे। घर में किसी बेटे को इतनी फुर्सत न थी कि शहर के किसी अस्पताल में ले जाकर उनका इलाज़ करवा दे। दोनों की पत्नियाँ भी काका के खाँसने पर खूब गुस्सा करती थी।

सुबह के पाँच बज रहे थे। काका का स्वास्थ्य सही न था। उसके बावज़ूद भी वो सुबह सुबह चारा लेने निकल पड़े। वैशाख-ज्येष्ठ की चिलचिलाती धूप में बाहर निकलना बेहद कठिन होता है, लेकिन दयाराम काका हंसिया लेकर निकल गए। किसी तरह वहाँ पहुँच तो गए लेकिन चारा काटते काटते कुछ देर बाद उनकी आँखों के सामने अंधेरा छाने लगा। हाथ से हसिया छूट गई। दयाराम वहीं गिर पड़े। आसपास के किसान उनके पास पहुँचे तो देखा कि दयाराम काका की आँखें बंद थी। साँसों ने उनका साथ छोड़ दिया था और वो वहीं प्राण त्याग चुके थे।

 ---- ©®प्रियांशु कुशवाहा "प्रिय" 

             मो. 9981153574

शनिवार, 14 नवंबर 2020

बघेली कविता.. ( गरीब केर देवारी ) ~ [ सैफुद्दीन सिद्दीकी "सैफू" जी ]

 

बघेली कविता...




आज दीपावली है। चारों ओर दिया जगमगा रहे हैं, पटाखों की आवाज़ से पूरा वातावरण गुंजायमान हो रहा है। परंतु अंतिम छोर पर खड़ा एक वह गरीब भी है जिसके भाग्य में न तो कोई दिन है और न ही कोई त्योहार। उसके अपने सभी खेत बिक गए हैं और अपने परिवार को दो जून की रोटी देने के लिए दिनभर दूसरों के खेतों में मज़दूरी भी करनी पड़ती है। अपने परिवार के सदस्यों के चेहरे पर मुस्कान देखकर वह सभी त्योहार मना लेता है। तो आज आपको उसी गलियारे से निकली हुई एक #बघेली_कविता से जोड़ता हूं, जिसके रचयिता हैं महाकवि सैफुद्दीन सिद्दीकी "सैफू" जी



( गरीब केर देवारी )


मन के बात मनै मा रहिगै, होइगै आज देवारी।

बातिउ भर का तेल न घरमा, दिया कहाँ ते बारी।


खेत पात सब गहन धरे हैं, असमौं न मुकतायन,

बनी मजूरी कइके कइसव, सबके पेट चलायेन।


अढ़िऔ तबा बिकन डारेन सब, दउर परी महंगाई।

पर के फटही बन्डी पहिरेब, कइसे नई सियाई।।


लड़िकौ सार गुडन्ता खेलै, गोरूआ नहीं चराबै।

कही पढ़ैं क तो भिन्सारेन, उठके मूड हलावै।


रिन उधार बाढ़ी टोला मा, कोउ नहीं देबइया।

खाँय भरे का है मुसलेहड़ी, हमहिन एक कमइया।।


दिन भर ओड़ा टोरी आपन, तब पइला भर पाई।

माठा भगर मसोकी सबजन, कइसव पेट चलाई।।


तिथ त्योहार होय सबहिन के, मुलुर मुलुर हम देखी।

केतना केखर रिन लागित हन, आँखी मूँद सरेखी।।


मनई के घर जलम पायके, मनई नहीं कहायेन।

डिठमन दिया देवारिउ कबहूँ, नीक अन्न न खायेन।।


उमिर बीतगै भरम जाल मा, भटकत भटकत भाई।

तुहिन बताबा केखे माथे, अब हम दिया जराई।।


सोउब रहा तो दादा लइगा, अब ओलरब भर रहिगा।

मँहगाई मा सबै सुखउटा, पानी होइके बहिगा।।


कउन लच्छमी धरी लाग ही, जेखर करी पुजाई।

कउने फुटहा घर मा ओखर, मूरत हम बइठाई।।


गाँवौं के कुछ मनई अइहैं, जो कजात बोलवाई।

केतनी हेटी होई गय जो हम, बीड़िउ नहीं पिआई।।


नरिअर रोट बतासौ चाही, कमरा दरी बिछाई।

है तो हियाँ फटहिबै कथरी, छूँछ खलीसा भाई।।


करम राम बेड़ना ओढ़काये, कुलकुतिया है मनमा।

आव लच्छमी तहूँ बइठ जा, पइरा के दसनन मा।।


झूरै झार पुजाई लइले, तोर हबै सब जाना।

गोड़ टोर के बइठ करथना, कइ लीन्हें मनमाना।।


बड़े बड़े मनइन के नेरे, तैं अबतक पछियाने।

उनहिन के घरमा बिराज के, खूब मिठाई छाने।।


अब महुआ के लाटौ लइले, फुटही देख मड़इया।

दालिद केर पहाड़ देखले, चढ़ले तहूँ चढ़इया।।


मन के दिया जराय देब हम, मानिउ लिहे देवारी।

तोर गोड़ धोमैं के खातिर, गघरिन आँसू डारी।।


कहु तो फार करेजा आपन, तोही लाय देखाई।

य जिउ के माला बनाय के, तोहिन का पहिराई।।


गनिउ गरीबन केर पुजाई, मान लिहे महरानी।

रच्छा कारी करै सवत्तर, तोहिन का हम जानी।।


घुरबौ भर के बेरा लउटै, कबहूँ व दिन देखब।

महा लच्छमी केर पुजाई, कइके रकम सरेखब।।


अँतरी खोंतरी मा घिउ भरके, लाखन दिया जराउब।

बूँदी के लेड़ुआ बँटाय के , हमू उराव मनाउब।।


इहै बिसूरत झिलगी खटिया, गा टेपुआय बिचारा।।

"सैफू" कहैं देवारी आई, दिया सबै जन बारा।।


~ सैफुद्दीन सिद्दीक़ी "सैफू"

गुरुवार, 27 अगस्त 2020

व्यंग्य ~ ( हम और बेचारी मीडिया )

 

व्यंग्य
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( हम और बेचारी मीडिया )

अब सब कुछ पहले जैसा रहा ही नहीं। कितने खूबसूरत दिन हुआ करते थे ना आदमी के पास मोबाइल था, ना टीवी, ना ही इतनी बेहतरीन टेक्नोलॉजी जो आज सबके पास उनकी जेब में ही उपलब्ध है। अरे भई! जब हमारे पास यह सब नहीं था तब भी तो लोग अपना काम कर रहे थे। तो क्या जरूरत थी इतना आगे बढ़ने की ? मोबाइल आने से चिट्ठियों का ज़माना जरूर खत्म हुआ है, लेकिन अब श्यामू बेचारा अपनी प्रेमिका मनीषा से मिलने नहीं जा पाता। जब भी ऐसा अवसर बनता तो बेचारे का कोई ना कोई काम आ जाता या कोई फोन करके उसे बुला लेता और मनीषा से मिलने की जगह न जाने उसे कितनों से मिलना पड़ जाता। प्रेमी और प्रेमिका के साथ सबसे बड़ी समस्या यही हो गई है कि पहले तो एक प्रेमी की एक ही प्रेमिका हुआ करती थी परंतु मोबाइल आ जाने के कारण ना जाने कितनों को एक साथ समेट कर चलना पड़ता है। तकनीक का युग तो उन दिनों भी था। हम और आप रेडियो सुनकर मनोरंजन या समाचार का आनंद भी ले सकते थे और देश - दुनिया की घटनाओं पर नज़र रख सकते थे। पर अब लोग टीवी या मोबाइल पर ही समाचार देखना बड़ा पसंद करते हैं। बेचारे रेडियो के साथ बड़ी समस्या हो गई। रेडी होते ही आउट होना पड़ा। मैंने ऊपर रेडियो में मनोरंजन और समाचार सुनने की बात कही है। परंतु वर्तमान परिदृश्य को देखकर यह दोनों एक दूसरे के समकालीन ही नज़र आते हैं और हों भी क्यों ना जबसे बेचारे रेडियो का स्थान टी.वी. अथवा मोबाइल ने लिया है तबसे समाचार मनोरंजन और मनोरंजन समाचार एक जैसे ही हो गए हैं। अब तो बच्चों को मनोरंजन करना हो य कोई हास्यास्पद वीडियो देखने हो तो वह भी छोटा भीम, सोनपरी य शक्तिमान नहीं देखते। वह भी सोचते हैं चलो यार आज किसी न्यूज़ चैनल में फाइटिंग चल रही होगी वही देख कर ही मनोरंजन करते हैं। 

हमारे पड़ोस में राजेश नाम के 1 मित्र रहते हैं। उम्र यही कोई 20-21 साल की होगी। बेचारे पैसों के अभाव के कारण घर बैठे ही किसी बड़ी सरकारी नौकरी की तैयारी कर रहे हैं। उतनी सुविधाएं मिल नहीं पाती हैं तो एक दिन उन्होंने एक मित्र को फोन लगाया और कहा -

" रंजीत भाई ! कोई न्यूज़ चैनल बताइए जिससे हमारे करंट अफेयर की तैयारी यहीं से हो जाया करें "

रंजीत भाई ने राजेश जी को कोई 7-8 चैनलों के नाम बताएं और कहा- “आप मनोरंजन के साथ-साथ करंट अफेयर की तैयारी यहीं से कर सकते हैं।” राजेश ने धन्यवाद बोल कर तुरंत ही फोन काटा और टी.वी. चालू कर रंजीत के बताए हुए न्यूज़ चैनल सर्च करने लगे। टी.वी. चालू करते ही बेचारे राजेश बड़ी असमंजस भरी स्थिति में पड़ गए। एक बड़े से न्यूज़ चैनल के स्क्रीन पर लिखा आ रहा था।

" प्रधानमंत्री इमरान से आखिर क्यों हैं उनकी बीवी नाराज़..जानने के लिए देखिए आज रात 10 बजे..."

राजेश जी को लगा हो सकता है कोई गलत न्यूज़ चैनल लग गया हो। उन्होंने फिर चैनल बदला और एक नया न्यूज़ चैनल लगाया इस बार उनकी स्क्रीन पर लिखा आया।

" क्या चीन में एलियन गाय का दूध पीते थे ? ..जानने के लिए देखिए आज शाम 5 बजे सिर्फ और सिर्फ फलाना चैनल पर..।"  बेचारे राजेश जी जब भी कोई न्यूज़ चैनल लगाते ऐसी ही खबरें सामने आने लगती। उन्होंने तुरंत बाद टी.वी. बंद कर दिया और सोचने लगे- मैंने तो रंजीत भाई से करंट अफेयर के बारे में पूछा था। वह तो इमरान और उसकी बीवी के अफेयर के बारे में जानकारी देने वाले चैनल का नाम बता कर गए हैं। 

भुखमरी, बेरोजगारी, किसानों की दुर्दशा, गरीबी इत्यादि यह सब तो देश में हमेशा ही रही है। चाहे उस वक्त किसी की भी सरकार रही हो। न्यूज़ चैनल वाले भी चाहते हैं कि इन समस्याओं को दिखाकर पुनः समाज के सामने उजागर क्यों करें। स्थिति तो अब ऐसी हो गई है कि पहले लोग झूठ बोलते थे और मीडिया सच ढूंढ कर लाती थी और अब मीडिया झूठ बोलती है और लोग सच ढूंढने का काम करते हैं। खैर ! जिसकी सरकार में देश की मूलभूत समस्याएं टीवी पर नहीं आ रही है, वही चैनल अच्छी खासी टी.आर.पी बटोर रहे हैं। अब भला पैसा और नाम कौन नहीं कमाना चाहता है। स्थिति तो सत्यवादियों की ख़राब है जो बेचारे इन समस्याओं को टीवी में दिखाना चाहते हैं। उनको सोशल मीडिया में ट्रेंड करके गालियां दे दी जाती हैं और भला सच्ची और अच्छी खबरें आज सुनना ही कौन चाह रहा है। ज्यादातर लोग तो हवा की ओर चलना ही पसंद करते हैं। 

मुझे व्यक्तिगत रूप से किसी न्यूज़ चैनल से लगाव या घृणा नहीं है, और न ही मैं इतना समाचार सुनता हूँ लेकिन कुछ चैनल के एंकर इतने खतरनाक तरीके से बोलते हैं-

 “ गौर से देखिए यह चेहरा ! हो सकता है आपके इर्द-गिर्द ही छुपा हो..” 

ठीक ऐसा सुनते ही बगल में बैठे पिताजी को यही महसूस होता है कि उनके ही बेटे ने ही इस संगीन वारदात को अंजाम दिया है। बेरोजगारी वास्तव में अपनी चरम सीमा पार कर रही है लेकिन इसमें बेचारी सीधी-सादी और नादान सरकार को दोष देना ग़लत है। अब न्यूज़ चैनल वालों का ही उदाहरण ले लीजिए इतनी बेरोजगारी भरी स्थिति में उनके रिपोर्टर्स भी तो कमाई कर रहे हैं, हाँ! लेकिन उन्होंने चाटुकारिता का बेहद महत्वपूर्ण और आवश्यक कोर्स भी किया है। अगर आप सत्य बोल रहे हैं य आपको चाटुकारिता भरी रिपोर्टिंग य एंकरिंग नहीं आती, तब आपको खासा मुश्किल भी हो सकती है। 

हम तो धन्य मानते हैं उन रिपोर्टर्स को जिन बेचारों को अपने देश से ज्यादा दूसरे देशों की चिंता सताए जा रही है। आख़िर इतना वक्त किसके पास है जो अपने देश की समस्याओं को छुपा कर दूसरे देश की समस्याएं अपने चैनल पर चलाएं। परंतु हमारे देश की मीडिया सार्वदेशिक है। उसे अपने देश के साथ साथ समूचे विश्व की चिंता सताए जा रही है। किस देश में कितनी गरीबी है ? क्यों है ? और यह कैसे खत्म की जा सकती है। ये अपने देश की मीडिया बखूबी जानती है। अपने देश के कुछ न्यूज़ चैनल्स सरकार की हज़ारों कमियों को भी छुपाने का गुर सीख कर आए हैं।

उम्मीद है और निश्चित रूप से आशा भी है कि भारतीय पत्रकारिता और यहाँ के कुछ न्यूज़ चैनल्स अपने इस अनूठे और अप्रतिम अंदाज़ को इसी तरह जारी रखेगे जिससे आने वाले समय में भारत में पल रही मूलभूत समस्याएं छुप जाएं और हम और हमारा देश पुनः विश्व भर में स्वर्णिम पहचान बना सके।

©  प्रियांशु “प्रिय”
मो. 9981153574

गुरुवार, 14 मई 2020

कविता ... कोरोना को हराना है ~ प्रियांशु कुशवाहा प्रिय


कविता

( कोरोना को हराना है...) 

हमको खुद भी बचना है और, हिंदुस्तान बचाना है।
इस मुश्किल के दौर में मिलकर, कोरोना को हराना है।

इंसाँ की ही गलती है ये, इंसाँ ने ही बुलाया है।
सारी दुनियाँ सोच रही है, कैसा वायरस आया है ?
इसका कोई इलाज़ नहीं है, और न कोई दवाई है।
सोचो कैसे जीते दुनियाँ, कैसी नौबत आई है ?
सबसे पहली बात ये मानों, घर के बाहर मत जाओ।
रखो सफाई आसपास तुम, यही सभी को बतलाओ।
सैनेटाइजर, मास्क जरूरी, रखना अपने साथ।
मुख ढकने की आदत डालो, धो लो दोनों हाथ।
सामाजिक दूरी बहुत जरूरी, इसको भी अपनाना है।
इस मुश्किल के दौर में मिलकर, कोरोना को हराना है।

बच्चों और बुजुर्गों का भी रखना बेहद ध्यान,
इनसे ही घर, घर लगता है, ये ही हैं भगवान।
दर्द, बुखार और सूखी खाँसी गर ये सब हो जाए,
तकलीफ रहे जो सीने में और साँस फूलती जाए।
तुरत डाक्टर को दिखवाना, न करना बिल्कुल देरी,
झार फूक के चक्कर में, हो जाए न हेरा-फेरी।
गरीब और असहायों की भी रक्षा बहुत जरूरी है,
उसके पहले याद रखो, सुरक्षा बहुत जरूरी है।
सकारात्मक रहना सबको, नहीं कभी घबड़ाना है,
इस मुश्किल के दौर में मिलकर, कोरोना को हराना है।


©® प्रियांशु "प्रिय"

गुरुवार, 7 मई 2020

कोरोना से बचाव के उपाय एवं हमारी भूमिका

कोरोना से बचाव के उपाय एवं हमारी भूमिका

प्रस्तावना ... 


विश्व के सभी देशों के पास अपनी अलग अलग ऐसी प्रतिभाएं हैं। जिससे वे स्वयं को दूसरे देशों से अलग साबित करता है। वह किसी भी क्षेत्र में हो सकती हैं जिनमें विज्ञान, खेलकूद , साहित्य , चिकित्सा इत्यादि हैं। प्रत्येक देशों के पास अपनी ऐसी प्रतिभाएं, उपकरण या कुछ ऐसा अलग है, जिससे वह स्वयं को वैश्विक पटल पर रखने हेतु कारगर है । भारत भी पूरे विश्व में अपनी अलग छवि बना चुका है। साथ ही दिन प्रतिदिन हिंदुस्तान में नित्य नए अविष्कार के साथ साथ  नई नई प्रतिभाएँ जन्म लेती है। परंतु भारत ही नहीं अपितु समूचे विश्व में कभी ना कभी कोई ऐसी समस्या का जन्म हो जाता है, जिससे पूरे देश को एक साथ लड़ना पड़ता है। परंतु जब इन समस्याओं का निर्माता स्वयं मनुष्य हो तब इसे वैश्विक होने से कोई नहीं रोक सकता है।

COVID-19 ( कोरोना वायरस ) ... 


इन दिनों ठीक ऐसी ही एक घातक महामारी *कोरोना* पूरे विश्व में कोहराम मचा रही। यह सार्वदेशिक रोग एक मनुष्य से दूसरे मनुष्य में बड़ी ही तेजी से फैलता है। कोरोना वायरस एक प्राणघातक वायरस है । स्वयं को इससे दूर रखना या स्वयं को इससे बचाना ही सबसे बड़ी दवाई है। खबरों के अनुसार जानने पर यह पता चलता है कि यह महामारी चीन के वुहान शहर से शुरू हुई थी और शीघ्र ही मात्र 3 महीनों के भीतर इसने भारत सहित लगभग पूरे विश्व को अपने कब्जे में ले लिया।

 कोरोना वायरस के लक्षण... 

इस सार्वदेशिक रोग के लक्षण मामूली से रहते हैं। जिससे रोगी को पहचानना भी काफी मुश्किल होता है। परंतु इस बीमारी के आम लक्षण सूखी खांसी , बुखार, थकान ही हैं और ज्यादातर गंभीर मामलों में सांस लेने में भी तकलीफ होती है।

कोरोना से बचाव के उपाय...

पूरी दुनिया में फैले इस वायरस से अब तक लगभग 3 लाख से ज्यादा लोग अपनी जान गंवा चुके हैं। साथ ही 37 लाख से ज्यादा संक्रमित भी हैं। पूरी दुनिया की चिकित्सा पद्धति भी इसका पुख्ता इलाज नहीं खोज पा रही है और जो खबरें आ रही हैं उनसे पता चलता है कि इससे दवा बनने में लगभग 6 से 7 महीने का समय लग सकता है तब तक हमें स्वयं ही इससे बचना होगा जो कि बेहद आसान है आइए हम निम्न बिंदुओं से जानते हैं इससे बचने के उपाय :-
1. इससे बचने के लिए सामाजिक दूरी अपनाना सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण है।
2. स्वयं की प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाने हेतु पौष्टिक आहार लेना बेहद आवश्यक है।
3. बिना आवश्यकता के हमें घर से बाहर नहीं निकलना है ।
4. हमें शौच के बाद और खाना खाने से पहले अपने हाथों को कम से कम 20 सेकंड तक साबुन से नियमानुसार धोना है।
5.अगर अति आवश्यक कार्य से बाहर जाना पड़ रहा है तो मास्क लगाकर और सैनिटाइजर लेकर ही घरों से बाहर निकले।
6. खाँसते और छींकते वक्त टिश्यू का इस्तेमाल करना बेहद आवश्यक है।
7. हमें बीमार व्यक्ति के नज़दीक जाने से बचना है ।
8. बिना हाथ धोए अपने नाक, मुंह, को ना छुएँ।
9.खांसी बुखार और सांस लेने में तकलीफ हो तो जल्द से जल्द चिकित्सक के पास जाएं।
10. अपने आसपास हमेशा साफ-सफाई रखकर ही हम इस महामारी से निजात पा सकते हैं।

हमारी महत्त्वपूर्ण भूमिका...

इस महामारी से लड़ने के उपाय बेहद आसान हैं। परंतु हमें यह अवश्य ज्ञात होना चाहिए कि एक वह वर्ग भी है जो अपनी जान दाव पर लगाकार चौबीसों घंटे हमारी सेवा में लगा रहता है। निश्चित रूप से वह ईश्वर का ही दूसरा रूप है जो हरपल, हरवक्त हमारी हर संभव मदद कर रहे हैं। भारत का एक शिक्षित और जागरूक युवा होने पर हमारी भी यह जिम्मेंदारी बनती है कि स्वास्थ विभाग और सरकार द्वारा बताए गए नियमों का पालन करके उन असहाय लोगों तक पहुँचें और अपनी क्षमता अनुसार उनकी मदद करें साथ ही लोगों को इससे बचने के उपाय बताकर यह भी बतलाएँ कि हम सदैव सकारात्मक रहकर भी अपनी प्रतिरोधक क्षमता को जीवंत कर सकते है जो न सिर्फ कोरोना अपितु हर एक बीमारी से लड़ने हेतु बेहद आवश्यक है।


©® प्रियांशु  कुशवाहा " प्रिय "







मंगलवार, 28 अप्रैल 2020

कविता || चुप रहो ! यहां सब शांत हैं || कवि प्रियांशु "प्रिय" ||

कविता ...

( चुप रहो ! यहाँ सब शांत हैं ...... ) 

यह वक्त ही कुछ ऐसा हो गया है कि सबको सबसे घृणा, ईर्ष्या, नफ़रत सी होने लगी है। एक व्यक्ति स्वयं को सर्वश्रेष्ठ साबित करने के लिए कुछ भी करने पर उतारू हो रहा है। भरी भीड़ में भी सब अकेले ही हैं। सत्ता के गलियारे तक अगर कोई बात चली जाए तो वहाँ सत्य बोलना मौत के साथ खेल खेलेने जैसा है। इसलिए हर जगह सत्य की भाषा और सत्य बोलने वालों की ज़बान बंद कर दी गई है। सरकार के पास गरीबों के खाने से लेकर उनके आवास तक की योजना महज़ कागज़ में ही सुरक्षित है। वो सब कागज़ी योजनाएं भी धीरे धीरे कूड़ेदान में डाली जा रही हैं। 
लोगों के बदलते हुए व्यवहार, चरित्र से लेकर सियासत तक की अंधी व्यवस्था को सुनिए इस कविता में......

( चुप रहो!  यहाँ सब शांत हैं... )

~    लेखन एवं प्रस्तुति
(  कवि प्रियांशु कुशवाहा "प्रिय" )
मों.  9981153574 , 7974514882



कविता यहाँ से सुने 👉👉   चुप रहो ! यहाँ सब शांत हैं....

अपने विंध्य के गांव

बघेली कविता  अपने विंध्य के गांव भाई चारा साहुत बिरबा, अपनापन के भाव। केतने सुंदर केतने निकहे अपने विंध्य के गांव। छाधी खपड़ा माटी के घर,सुं...